टीपू सुल्तान


टीपू सुल्तान (अंग्रेज़ीTipu Sultan, जन्म: 20 नवम्बर, 1750 ई. ; मृत्यु- 4 मई 1799 ई.) भारतीय इतिहासके प्रसिद्ध योद्धा हैदर अली का पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद पुत्र टीपू सुल्तान ने मैसूर सेना की कमान को संभाला था, जो अपनी पिता की ही भांति योग्य एवं पराक्रमी था। टीपू को अपनी वीरता के कारण ही 'शेर-ए-मैसूर' का ख़िताब अपने पिता से प्राप्त हुआ था। टीपू द्वारा कई युद्धों में हारने के बाद मराठों एवं निज़ाम ने अंग्रेज़ों से संधि कर ली थी। ऐसी स्थिति में टीपू ने भी अंग्रेज़ों से संधि का प्रस्ताव किया और चूंकि अंग्रेज़ों को भी टीपू की शक्ति का अहसास हो चुका था, इसलिए छिपे मन से वे भी संधि चाहते थे। दोनों पक्षों में वार्तामार्च, 1784 में हुई और इसी के फलस्वरूप 'मंगलौर की संधि' सम्पन्न हुई।
कई बार अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा देने वाले टीपू सुल्तान को भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने विश्व का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक बताया था।
टीपू सुल्तान का जन्म मैसूर के सुल्तान हैदर अली के घर 20 नवम्बर, 1750 को 'देवनहल्ली', वर्तमान मेंकर्नाटक का कोलार ज़िला में हुआ था। टीपू सुल्तान का पूरा नाम फ़तेह अली टीपू था। वह बड़ा वीर, विद्याव्यसनी तथा संगीत और स्थापत्य का प्रेमी था। उसके पिता ने दक्षिण में अपनी शक्ति का विस्तार आरंभ किया था। इस कारण अंग्रेज़ों के साथ-साथ निजाम और मराठे भी उसके शत्रु बन गए थे। टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ों के विरूद्ध पहला युद्ध जीता था। अंग्रेज़ संधि करने को बाध्य हुए। लेकिन पांच वर्ष बाद ही संधि को तोड़कर निजाम और मराठों को साथ लेकर अंग्रेज़ों ने फिर आक्रमण कर दिया। टीपू सुल्तान ने अरबकाबुलफ्रांस आदि देशों में अपने दूत भेजकर उनसे सहायता मांगी, पर सफलता नहीं मिली। अंग्रेज़ों को इन कार्रवाइयों का पता था। अपने इस विकट शत्रु को बदनाम करने के लिए अंग्रेज़ इतिहासकारों ने इसे धर्मांध बताया है। परंतु वह बड़ा सहिष्णु राज्याध्यक्ष था। यद्यपि भारतीय शासकों ने उसका साथ नहीं दिया, पर उसने किसी भी भारतीय शासक के विरूद्ध, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अंग्रेज़ों से गठबंधन नहीं किया।
टीपू सुल्तान काफ़ी बहादुर होने के साथ ही दिमागी सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर था। अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुका और उसने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेज़ों को खदेड़ने में उसने अपने पिता हैदर अली की काफ़ी मदद की। उसने अपनी बहादुरी से जहाँ कई बार अंग्रेज़ों को पटखनी दी, वहीं निज़ामों को भी कई मौकों पर धूल चटाई। अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निज़ाम ने टीपू सुल्तान से गद्दारी की और अंग्रेज़ों से मिल गया।
संधि
मैसूर की तीसरी लड़ाई में भी जब अंग्रेज़ टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने मैसूर के इस शेर से 'मंगलोर की संधि' नाम से एक समझौता कर लिया। संधि की शर्तों के अनुसार दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेशों को वापस कर दिया। टीपू ने अंग्रेज़ बंदियों को भी रिहा कर दिया। टीपू के लिए यह संधि उसकी उत्कृष्ट कूटनीतिक सफलता थी। उसने अंग्रेज़ों से अलग से एक संधि कर मराठों की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर दिया। इस संधि से गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्सअसहमत था। उसने संधि के बाद कहा-
"यह लॉर्ड मैकार्टनी कैसा आदमी है। मैं अभी भी विश्वास करता हूँ कि वह संधि के बावजूद कर्नाटक को खो डालेगा।"
टीपू सुल्तान
'पालक्काड क़िला', 'टीपू का क़िला' नाम से भी प्रसिद्ध है। यह पालक्काड टाउन के मध्य भाग में स्थित है। इसका निर्माण 1766 में किया गया था। यह क़िला भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के अंतर्गत संरक्षित स्मारक है। मैसूर के सुल्तान हैदर अली ने इस क़िले को 'लाइट राइट' यानी 'मखरला' से बनवाया था। जब हैदर ने मालाबार और कोच्चि को अपने अधीन कर लिया, तब इस क़िले का निर्माण करवाया। उनके पुत्र टीपू सुल्तान ने भी यहाँ अधिकार जमाया था। पालक्काड क़िला टीपू सुल्तान का केरल में शक्ति-दुर्ग था, जहाँ से वह ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ लड़ता था। इसी तरह सन 1784 में एक युद्ध में कर्नल फुल्लेर्ट के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिकों ने 11 दिन दुर्ग को घेर कर रखा और अपने अधीन कर लिया। बाद में कोष़िक्कोड के सामूतिरि ने क़िले को जीत लिया ।1790 में ब्रिटिश सैनिकों ने क़िले पर पुनः अधिकार कर लिया। बंगाल में 'बक्सर का युद्ध' को तथा दक्षिण में मैसूर का चौथा युद्ध को जीत कर भारतीय राजनीति पर अंग्रेज़ों ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली।
टीपू सुल्तान का मक़बरा,श्रीरंगपट्टनम
'फूट डालो, शासन करो' की नीति चलाने वाले अंग्रेज़ों ने संधि करने के बाद टीपू से गद्दारी कर डाली। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर ज़बर्दस्त हमला किया और आख़िरकार 4 मई सन् 1799 ई. को मैसूर का शेर श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। 1799 ई. में उसकी पराजय तथा मृत्यु पर अंग्रेज़ों ने मैसूर राज्य के एक हिस्से में उसके पुराने हिन्दू राजा के जिस नाबालिग पौत्र को गद्दी पर बैठाया, उसका दीवान पुरनिया को नियुक्त कर दिया।
टीपू की असफलता के कारण
टीपू सुल्तान की असफलता के दो महत्त्वपूर्ण कारण थे-
  • फ़्राँसीसी मित्रता और देशी राज्यों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा बनाने में टीपू असफल रहा।
  • वह अपने पिता हैदर अली की भांति कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शिता का पक्का नहीं था।
विकास कार्य
टीपू की शहादत के बाद अंग्रेज़ श्रीरंगपट्टनम से दो रॉकेट ब्रिटेन के 'वूलविच संग्रहालय' की आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए। सुल्तान ने 1782 में अपनेपिता के निधन के बाद मैसूर की कमान संभाली थी और अपने अल्प समय के शासनकाल में ही विकास कार्यों की झड़ी लगा दी थी। उसने जल भंडारण के लिएकावेरी नदी के उस स्थान पर एक बाँध की नींव रखी, जहाँ आज 'कृष्णराज सागर बाँध' मौजूद है। टीपू ने अपने पिता द्वारा शुरू की गई 'लाल बाग़ परियोजना' को सफलतापूर्वक पूरा किया। टीपू निःसन्देह एक कुशल प्रशासक एवं योग्य सेनापति था। उसने 'आधुनिक कैलेण्डर' की शुरुआत की और सिक्का ढुलाई तथा नाप-तोप की नई प्रणाली का प्रयोग किया। उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम में 'स्वतन्त्रता का वृक्ष' लगवाया और साथ ही 'जैकोबिन क्लब' का सदस्य भी बना। उसने अपने को नागरिक टीपू पुकारा। टॉमस मुनरो ने टीपू के बारें में लिखा है कि-
"नवीनता की अविभ्रांत भावना तथा प्रत्येक वस्तु के स्वयं ही प्रसूत होने की रक्षा उसके चरित्र की मुख्य विशेषता थीं।


ईस्ट इण्डिया कम्पनी


ईस्ट इण्डिया कम्पनी (अंग्रेज़ीEast India Company)  एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी, जिसने 1600 ई. में शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसकी स्थापना 1600 ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा हुई थी। यह लन्दन के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया था। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य धन कमाना था। 1708 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिद्वन्दी कम्पनी 'न्यू कम्पनी' का 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में विलय हो गया। परिणामस्वरूप 'द यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ मर्चेंट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई। कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रेख 'गर्वनर-इन-काउन्सिल' करती थी।

कम्पनी का भारत आगमन

1608 ई. में कम्पनी का पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, क्योंकि कम्पनी अपने व्यापार की शुरुआत मसालों के व्यापारी के रूप में करना चाहती थी।

व्यापार के लिए संघर्षकम्पनी ने सबसे पहले व्यापार की शुरुआत मसाले वाले द्वीपों से की। 1608 ई. में उसका पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, परन्तु पुर्तग़ालियों के प्रतिरोध और शत्रुतापूर्ण रवैये ने कम्पनी को भारत के साथ सहज ही व्यापार शुरू नहीं करने दिया। पुर्तग़ालियों से निपटने के लिए अंग्रेज़ों को डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता और समर्थन मिला और दोनों कम्पनियों ने एक साथ मिलकर पुर्तग़ालियों से लम्बे अरसे तक जमकर तगड़ा मोर्चा लिया। 1612 ई. में कैप्टन बोस्टन के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के एक जहाज़ी बेड़े ने पुर्तग़ाली हमले को कुचल दिया और अंग्रेज़ों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में व्यापार शुरू कर दिया। 1613 ई. में कम्पनी को एक शाही फ़रमान मिला और सूरत में व्यापार करने का उसका अधिकार सुरक्षित हो गया। 1622 ई. में अंग्रेज़ों ने ओर्मुज पर अधिकार कर लिया, जिसके फलस्वरूप वे पुर्तग़ालियों के प्रतिशोध या आक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित हो गये।कम्पनी की सफलताएँ1615-18 ई. में सम्राट जहाँगीर के समय ब्रिटिश नरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद ही कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारख़ानें स्थापित किये। किन्तु कम्पनी को पहली महत्त्वपूर्ण सफलता मार्च, 1640 ई. में मिली, जब उसने विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चन्द्रगिरि के राजा से आधुनिक चेन्नई नगर का स्थान प्राप्त कर लिया। जहाँ पर उन्होंने शीघ्र ही सेण्ट जार्ज क़िले का निर्माण किया। 1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तग़ाली राजकुमारी से विवाह के दहेज मेंबम्बई का टापू मिल गया। चार्ल्स ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली।
1687 ई. में कम्पनी के एक वफ़ादार सेवक जॉब चारनाक ने बंगाल के नवाब इब्राहीम ख़ाँ के निमंत्रण पर भागीरथी की दलदली भूमि पर स्थित सूतानाती गाँव मेंकलकत्ता नगर की स्थापना की। बाद को 1698 ई. में सूतानाती से लगे हुए दो गाँवों, कालिकाता और गोविन्दपुर, को भी इसमें जोड़ दिया गया। इस प्रकार पुर्तग़ालियों के ज़बर्दस्त प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 90 वर्षों के अन्दर तीन अति उत्तम बन्दरग़ाहों-बम्बई, मद्रास और कलकत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। इन तीनों बन्दरग़ाहों पर क़िले भी थे। ये तीनों बन्दरग़ाह प्रेसीडेंसी कहलाये और इनमें से प्रत्येक का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के 'कोर्ट ऑफ़ प्रोपराइटर्स' द्वारा नियुक्त एक गवर्नर के सुपुर्द किया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संचालन लन्दन में 'लीडल हॉल स्ट्रीट' स्थित कार्यालय से होता था।
कम्पनी को सीमा शुल्क से मुक्ति
1691 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल के नवाब इब्राहीम ख़ाँ से एक फ़रमान प्राप्त हुआ, जिसमें कम्पनी को बंगाल में सिर्फ़ 3000 रुपये की राशि सालाना देने पर सीमा शुल्क के भुगतान से मुक्त कर दिया गया था। अन्य यूरोपीय कम्पनियों को तीन प्रतिशत शुल्क अदा करना पड़ता था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सर्जन 'डॉ. हैमिल्टन'[1] की चिकित्सा सेवाओं से ख़ुश होकर सम्राट फ़र्रुख़सियर ने 1715 ई. में नया फ़रमान जारी करते हुए कम्पनी को सीमा शुल्क से मुक्त करने वाले पहले फ़रमान की पुष्टि कर दी।
व्यापार में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के इस एकाधिकार का कई अंग्रेज़ व्यापारियों ने विरोध किया और सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में 'दि इण्डियन कम्पनी ट्रेडिंग टु दि ईस्ट इण्डीज़' नामक एक प्रतिद्वन्द्वी संस्था की स्थापना की। नयी और पुरानी दोनों कम्पनियों में कड़ी प्रतिद्वन्द्विता चल पड़ी, जिसमें पुरानी कम्पनी के पैर उखड़ने लगे, किन्तु भारत और इंग्लैण्ड दोनों ही जगह अत्यन्त कटु और अप्रतिष्ठाजनक प्रतिद्वन्द्विता के बाद 1708 ई. में समझौता हुआ, जिसके अंतर्गत दोनों को मिलाकर एक कम्पनी बना दी गई और उसका नाम रखा गया 'दि यूनाइडेट कम्पनी ऑफ़ दि मर्चेण्ट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इण्डीज़'। यह संयुक्त कम्पनी बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से ही मशहूर रही और डेढ़ सौ वर्षों में वह मात्र एक व्यापारिक निगम न रहकर एक ऐसी राजनीतिक एवं सैनिक संस्था बन गई, जिसने सम्पूर्ण भारत पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली।
Blockquote-open.gif 1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तग़ाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में दहेज स्वरूप बम्बई का टापू मिल गया था। चार्ल्स द्वितीय ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली। Blockquote-close.gif
कम्पनी का स्वरूप
कम्पनी के साधारण सदस्यों की एक सभा थी, जिसके कार्य का नियंत्रण एक गवर्नर और चौबीस समितियों को दिया गया था। ये चौबीस समितियाँ चौबीस व्यक्ति थे, जिन्हें बाद में 'निदेशक' कहा जाने लगा और उनकी सभा को 'निदेशक मंडल'। निदेशक का कार्यकाल एक वर्ष का होता था, और वे अगले वर्ष के लिए पुनः चुने जा सकते थे। कम्पनी मात्र एक व्यापारिक संस्था थी। उसे केवल व्यापारिक निकायों के लिए मान्य विधायी और न्यायिक अधिकार प्राप्त हुए थे। इसके अंतर्गत उसे कारावास और अर्थदंड आरोपित करने की शक्ति अंग्रेज़ क़ानूनों के अंतर्गत प्रदान की गई थी। 1635 मेंइंग्लैण्ड में एक और कम्पनी को अनुमति प्राप्त हो गई, जिससे पुरानी कम्पनी को कठिनाई हुई और दोनों कम्पनियों में प्रतिद्वंदिता होने लगी। जिसका निराकरण करने का प्रयत्न किया गया, जिससे भविष्य की 'ज्वाइंट स्टॉक' कम्पनियों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1662 ई. में जार्ज आक्सेनडेन कम्पनी की फ़ैस्ट्री का अध्यक्ष बनाया गया था। 1694 में इंग्लेंड के हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रस्ताव आया कि इंग्लेंड के प्रत्येक नागरिक को विश्व के किसी भाग में व्यापार करने का अधिकार है, यदि संसद उसे प्रतिबंधित न कर दे। इस प्रस्ताव के उपरांत 1698 में एक और कम्पनी 'दी इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग टू दी ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई, जिससे लंदन कम्पनी संकट में आ गई 1709 में दोनों कम्पनियों का विलीनीकरण हुआ और 'दी युनाइटेड ईस्ट इण्डिया कम्पनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ इंग्लेंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' अस्तित्व में आई और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से विख्यात हुई। 1717 ई. में ही कम्पनी ने दस्तक प्रक्रिया शुरू कर दी थी।[2]
कम्पनी का सौभाग्य
भारत में इस कम्पनी की प्रभुसत्ता सहसा ही नहीं स्थापित हो गई। इसमें उसे सौ से भी अधिक वर्षों का समय लगा और इस अवधि में उसे फ़्राँस और डचकम्पनियों तथा भारतीयों से अनेक युद्ध भी करने पड़े। यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी कम्पनी का सौभाग्य ही था कि, भारत पर प्रभुसत्ता का दावा करने वाली मुग़लसरकार धीरे-धीरे कमज़ोर होती गई और देश अठारहवीं शताब्दी के दौरान छोटे-छोटे अनेक मुस्लिम और हिन्दू राज्यों में बँट गया। इन राज्यों में परस्पर कोई भी एकता न रही। मुस्लिम राज्य न केवल हिन्दू राज्यों के ख़िलाफ़ थे, वरन उनमें आपस में भी एकता न थी और न ही उनके मन में दिल्ली में शासन करने वाले मुग़ल सम्राट के प्रति कोई निष्ठा थी। यह फूट ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए वरदान सिद्ध हुई। जून 1756 ई. में जब नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर हमला किया, तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के फ़ोर्ट विलियम का गवर्नर ड्रेक रोगर था। इस कम्पनी ने 1761 ई. में वॉडीवाश का युद्ध जीतकर फ़्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत से सफ़ाया कर दिया। सन् 1757 ई. में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद बंगालबिहार और उड़ीसा पर उसका प्रभुत्व वस्तुत: पहले ही स्थापित हो चुका था। विलियम नाट (1782 से 1845 ई. तक) ईस्ट इण्डिया कम्पनी की बंगाल सेना में 1800 ई. में एक सैनिक पदाधिकारी होकर आया। इसकी अतिशीघ्र पदोन्नति हुई और 1839 ई. में उसे कंदहार स्थित ब्रिटिश सेनाओं का नेतृत्व सौंपा गया। इसी समय पर कम्पनी ने सैम्युअल आकमटी को मद्रास का सेनापति नियुक्त किया था।
कम्पनी का वर्चस्व
मुग़ल सम्राट शाहआलम द्वितीय असहाय सा कम्पनी की फ़ौजों का बढ़ाव और विजय देखता रहा। उसके देखते-देखते कम्पनी ने मैसूर के मुस्लिम राज्य को हड़प लिया और हैदराबाद के निज़ाम ने कम्पनी के आगे आत्म समर्पण कर दिया। पर वह कुछ भी न कर सका। हाँ, उसे इस बात से अलबत्ता कुछ सन्तोष मिला कि कम्पनी ने मराठों की शक्ति को भी काफ़ी क्षीण कर दिया था। राजपूत वीरे थे, किन्तु शुरू से ही उनमें आपस में फूट थी। उन्होंने आत्मरक्षा के लिए कोई वार किये बिना ही कम्पनी के आगे घुटने टेक दिये। इसी समय डेविड आक्टरलोनी, जो कम्पनी की सेवा में एक मुख्य सेनानायक था, मराठों से दिल्ली की रक्षा की।वारेन हेस्टिंग्स (1813-23) के प्रशासन काल में मराठों द्वारा आत्म समर्पण कर दिये जाने के बाद तो मुग़ल सम्राट वस्तुत: कम्पनी का पेंशनयुक्त बन गया। 1929 ई. में आसाम, 1843 ई. में सिन्ध, 1849 ई. में पंजाब और 1852 ई. में दक्षिणी बर्मा भी कम्पनी के शासन में आ गया। वास्तव में अब बर्मा (वर्तमानम्यांमार) से पेशावर तक कम्पनी का पूर्ण आधिपत्य था।
Main.jpg मुख्य लेख : सिपाही विद्रोह
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से व्यापारिक अधिकार और एकाधिपत्य पहले ही हस्तान्तरित किया जा चुका था और इस प्रकार वह ग्रेट ब्रिटेन के सम्राट के प्रशासनिक अभिकरण के रूप में कार्य कर रही थी। कम्पनी के शासनकाल में कई पूर्वी विद्रोह हुए थे। जिस समय चारों तरफ़ शान्ति नज़र आ रही थी, उसी समय अचानक 1857 ई. में भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। ब्रिगेडियर नील जेम्स ने 11 जून, 1857 ई. को इस विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। कम्पनी ने कुछ 'गद्दार' भारतीयों की मदद से विद्रोह को दबा तो दिया, लेकिन भारतीयों के कुछ वर्गों में विरोध और बग़ावत की आग भड़कती रही। यह बग़ावत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए घातक सिद्ध हुई। 1858 ई. में कम्पनी को समाप्त कर दिया गया और भारत की प्रभुसत्ता ब्रिटेन के सम्राट ने स्वयं ग्रहण कर ली।

कोलकाता नगर की स्थापना

भारत पर प्रभुसत्ता

सिपाही विद्रोह



'ख़त्म हो जाएंगे बहुत से समुद्री जीव'

दुनिया भर के समुद्रों में ऐसिड का स्तर 'अभूतपूर्व गति' से बढ़ता जा रहा है और संभव है कि यह पिछले 30 करोड़ सालों में सबसे ज़्यादा हो.
वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसिड का स्तर बढ़ने की यह प्रक्रिया साल 2100 में 170 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है.

शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं इसके लिए मनुष्यों द्वारा उनका मानना है कि इन परिस्थितियों में 30 प्रतिशत समुद्री प्रजातियों का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा.
क्लिक करेंकार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.
पोलैंड में अगले हफ़्ते वैश्विक पर्यावरण के मसले पर होने वाली बैठक में इस अध्ययन को पेश किया जाएगा.

घुलता ऐसिड

"साल 2100 में जिस तरह ऐसिड का स्तर बढ़ने की संभावना है उसमें कोई भी मोलस्क ज़िंदा नहीं रह सकता. यह निश्चित रूप से बेहद चौंकाने वाला है"
प्रोफ़ेसर ज्यां पियरे गटूसो
इस मुद्दे पर दुनिया के 500 से ज़्यादा जाने माने विशेषज्ञ साल 2012 में कैलिफ़ोर्निया में जुटे थे.
इंटरनेशनल बायोस्फ़ेयर-जियोस्फ़ेयर कार्यक्रम की अगुआई में हुए अध्ययन की रिपोर्ट अब प्रकाशित कर दी गई है.
इसमें कहा गया है कि ऐसिड स्तर बढ़ाने में इंसानी गतिविधियों का हाथ है जो हर दिन दो करोड़ 40 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड समुद्र में घोल रहे हैं.
इतनी भारी मात्रा में कार्बन घुलने से समुद्र के पानी का रासायनिक स्वरूप बदल गया है.

औद्योगिक क्रांति

औद्योगिक क्रांति की शुरूआत से लेकर अब तक पानी 26 फ़ीसदी ज़्यादा ऐसिडिक हो गया है.
क्लिक करेंफ्रांस की राष्ट्रीय शोध एजेंसी सीएनआरसी के प्रोफ़ेसर ज्यां पियरे गटूसो कहते हैं, ''मेरे साथियों ने भूगर्भीय रिकॉर्ड में कभी इतनी तेज़ी से बदलाव होते नहीं देखा है.''
वैज्ञानिकों को सबसे ज़्यादा चिंता है क्लिक करेंप्रवाल भित्तियों समेत समुद्री प्रजातियों पर पड़ने वाले असर की.
समुद्र की गहराई में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि जहां पानी में ऐसिड का स्तर कार्बन डाई ऑक्साइड की वजह से ज़्यादा है वहां समुद्रिक जैव विविधता का 30 फ़ीसदी हिस्सा इस शताब्दी के अंत तक ख़त्म हो जाएगा.

भविष्य की तस्वीर

बढ़ता ऐसिड उन समुद्री जीवों के लिए ख़तरा है जिनका कवच कैल्शियम कार्बोनेट से बनता है
शोधकर्ता मानते हैं कि ये आंकड़े भविष्य की तस्वीर दिखाते हैं.
प्रोफ़ेसर गटूसो कहते हैं, ''साल 2100 में जिस तरह ऐसिड का स्तर बढ़ने की संभावना है उसमें कोई भी मोलस्क ज़िंदा नहीं रह सकता. यह निश्चित रूप से बेहद चौंकाने वाला है."
उन्होंने कहा, "ये तस्वीर पूरी तरह से सही नहीं है. इन जगहों पर केवल सामुद्रिक ऐसिड बढ़ रहा है लेकिन ये इस शताब्दी में बढ़ रहे तापमान को नहीं दिखाती. अगर आप दोनों को मिला दें तो स्थिति बहुत नाटकीय हो जाएगी.''
ऐसिड का सबसे ज़्यादा असर आर्कटिक और क्लिक करेंअंटार्कटिक में देखा जा रहा है.

नुकसानदायक

इन समुद्रों में कार्बन कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा और गैस का बढ़ता स्तर उन्हें बाक़ी दुनिया के मुक़ाबले बहुत तेज़ी से ऐसिड युक्त बना रहा है.
यह स्थिति समुद्री जीवों के लिए बेहद नुकसानदायक है.
शोधकर्ताओं का मानना है कि 2020 तक आर्कटिक का दस प्रतिशत हिस्सा उन प्रजातियों के लिए असह्य हो जाएगा जिनका कवच कैल्शियम कार्बोनेट से बनता है.

सामुद्रिक संरक्षण ज़ोन बनाने से कुछ समय के लिए मदद मिल सकती है लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि लंबी अवधि में केवल उत्सर्जन में कमी ही ऐसिड स्तर में बढ़ोत्तरी की समस्या से राहत दे सकती है.

समुद्र में 20 फीट नीचे रात बिताएंगे?

पानी के भीतर होटल
जब लग्ज़री होटल रूम की बात होती है तो कई लोग कल्पनाओं की उड़ान भरने लगते हैं. एक ऐसी ही कल्पना अब साकार होने जा रही है.
ये कल्पना है समुद्र में पानी के बीच बने होटल, जहां आप आरामदायक ही नहीं, बल्कि लहरों के नीचे, रंगबिरंगी मछलियों और समुद्री जीवों के बीच अनोखा अनुभव प्राप्त कर सकते हैं.

लहरों के नीचे मछलियों के बीच आने वाले दिनों में पेंटहाउस सुइट के बजाय समुद्र की सतह से 20 फीट नीचे स्थित कमरा लोगों की पहली पसंद बनकर उभर सकता है.
क्लिक करेंसोने की कल्पना ख़तरनाक लग सकती है लेकिन पानी के अंदर कमरे बनाने के लिए ज़रूरी तकनीक अच्छी तरह स्थापित और जाँची परखी है.
पानी के अंदर 'वाटर डिस्कस' नाम से होटल बनाने की योजना बना रही पोलैंड की कंपनी 'डीप ओशन टैक्नोलॉजी' में प्रोजेक्ट मैनेजर रॉबर्ट बर्सीविक्ज़ तो ऐसा ही मानते हैं.
इस होटल को खींचकर किसी भी उपयुक्त जगह पर ले जाया जा सकेगा और स्थापित किया जा सकेगा.
इस होटल में पानी के भीतर 22 कमरे होंगे. पानी की सतह के ऊपर भी इसी तरह का हिस्सा है और दोनों हिस्सों को सीढ़ियों और लिफ्ट से जोड़ने की योजना है.

फिल्टर

बर्सीविक्ज़ ने कहा, "अब ऐसी पनडुब्बियां बनाना संभव है जो समुद्र में 500 मीटर गहराई तक जा सकती हैं, तो पानी के नीचे होटल बनाना मुश्किल नहीं है."
उनका कहना है कि उस तकनीक को अब नए तरीक़े से इस्तेमाल किया जा रहा है.
पानी के भीतर होटल
पनडुब्बी बनाने से होटल बनाना आसान है क्योंकि होटल को 15 मीटर की गहराई से नीचे नहीं रखा जा सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पानी धूप के लिए फ़िल्टर का काम करता है और 15 मीटर से नीचे नीले रंग के अलावा बाक़ी रंग धुल जाते हैं.
इसका मतलब है कि क्लिक करेंसमुद्र की रंगारंग दुनिया को क़रीब से देखने के लिए होटल के कमरों को छिछले पानी में होना चाहिए.
पानी के भीतर होटल
बर्सीविक्ज़ का कहना है, "हमारी योजना 10 मीटर की गहराई तक कमरे मुहैया कराने की है क्योंकि इसी क्षेत्र में समुद्र का सबसे ख़ूबसूरत नजारा दिखाई देता है."
लेकिन इसमें सबसे बड़ी चुनौती पानी के नीचे स्थित होटल से होने वाले शोर को क़ाबू में रखना है. शोरगुल से मछलियां और दूसरे समुद्री जीव दूर भाग सकते हैं जिससे पानी के नीचे होटल बनाने का मकसद ही ख़त्म हो जाएगा.

डिजाइन

बर्सीविक्ज़ ने कहा कि सावधानी से डिजाइन बनाकर इस समस्या का समाधान ढूंढ लिया गया है. इसके लिए शौचालय, पंप और वातानुकूलन से जुड़े उपकरणों को होटल के बीच वाले हिस्से में रखा जाएगा.

पानी के भीतर होटल
साथ ही यह भी अहम है कि यह होटल स्थानीय क़ानूनों और नियमों का पालन करे. लेकिन यह जटिल मामला हो सकता है क्योंकि इस तरह के निर्माण में कौन से नियम लागू होंगे.
बर्सीविक्ज़ ने कहा, "समुद्री नियमों को लेकर हर देश के अपने अपने क़ानून हैं. इस होटल को आप पनडुब्बी जैसा उपकरण भी मान सकते हैं, एक जहाज़ भी मान सकते हैं या फिर समुद्र से तेल निकालने के लिए बनाया गया ढांचा भी मान सकते हैं."
इस होटल को स्थापित करने के लिए समुद्र में जगह खोजना भी मुश्किल हो सकता है.
साउथम्पटन विश्वविद्यालय में समुद्री क़ानूनों के विशेषज्ञ डॉक्टर एलेक्ज़ेंद्रोस तोवास के मुताबिक़ ब्रिटेन के तट से 12 नॉटिकल मील के अंदर होटल स्थापित किया जा सकता है लेकिन इसके लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी. साथ ही इसे समुद्री पर्यावरण के लिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का भी पालन करना पड़ेगा.
पानी के भीतर होटल
लेकिन फिलहाल ऐसे होटल को क्लिक करेंब्रिटेन के जलक्षेत्र में बनाए जाने की कोई योजना नहीं है.

सर्फिंग और नौकायन

ब्रिटिश हॉस्पिटैलिटी एसोसिएशन के प्रवक्ता तबिता एल्डरिच स्मिथ का कहना है कि ऐसा होटल ब्रिटेन में शायद ही कभी बन पाए.
उन्होंने कहा, "ऐसा होटल शानदार होगा लेकिन हमारा ठंडा और ज्वार भाटा वाला समुद्री पानी भीतर ठहरने के बजाए सर्फिंग और नौकायन के लिए बेहतर हैं."
अमरीका के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र में स्थित गरम पानी वाले समुद्र इसके लिए उपयुक्त हैं. फ्लोरिडा के तट पर स्थित दो बेडरूम वाला जूल्स अंडरसी लॉज साल 1986 से आंगतुकों को 31 फीट की गहराई पर ठहरा रहा है.
इस ढांचे को 1970 के दशक में प्यूर्तो रिको के तट पर समुद्री प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था.
लेकिन जूल्स का तरीका डीप सी टेक्नोलॉजी के प्रस्तावित होटल से अलग है. इसका पूरा ढांचा पानी के नीचे है और केवल स्कूबा गियर पहनकर ही वहां जाया जा सकता है.
तंज़ानिया में पेम्बा द्वीप के तट पर मांटा रिज़ॉर्ट में पानी के नीचे कमरे बने हैं. यह वॉटर डिस्कस या जूल्स अंडरसी लॉज की तरह समुद्र की तलहटी से नहीं जुड़ा है.

यह समुद्र की सतह पर तैर रहे एक ढांचे से जुड़ा है. बहने से बचने के लिए इसने नाव की तरह लंगर डाला है. आंगतुक तैर रहे ढांचे से सीढ़ियों के ज़रिए होटल के कमरों में घुसते हैं.

चीन का सुपरकंप्यूटर है दुनिया में सबसे तेज़


चीन, सुपरकंप्यूटर तियानहे-2
सुपरकंप्यूटर तियानहे-2 को इस साल जून में भी दुनिया का सबसे शक्तिशाली कंप्यूटर चुना गया था.
चीन के सुपरकंप्यूटर तियानहे-2 ने दुनिया के सबसे तेज़ कंप्यूटर सिस्टम का अपना ख़िताब बरकरार रखा है.
लिनपैक नामक मानक टेस्ट के अनुसार तियानहे-2 33.86 पेटाफ़्लॉप प्रति सेकेंड यानी 3,38,630 खरब प्रति सेकेंड की दर से गणना कर सकता है.

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तियानहे-2 पहली बार इस वर्ष जून में दुनिया का सबसे तेज़ कंप्यूटर सिस्टम बना था. जून में आई सूची में मात्र एक बदलाव हुआ है.
जर्मनी के मैनहिम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर के नेतृत्व में साल में दो बार दुनिया के 500 सबसे तेज़ कंप्यूटरों की सूची बनाई जाती है.
इस सूची में दूसरे स्थान पर अमरीका का सुपरकंप्यूटर टाइटन है लेकिन तियानहे-2 के अंक टाइटन को मिले अंक से करीब दोगुने हैं.
टाइटन अमरीकी ऊर्जा विभाग का सुपरकंप्यूटर है और टेनिसी राज्य के ओक रिज़ नेशनल लेब्रोटरी में रखा हुआ है.

गति का मानक

दुनिया के सबसे तेज़ कंप्यूटर

तियानहे-2 (चीन) 33.86 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
टाइटन (अमरीका) 17.59 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
सिक्वोया (अमरीका) 17.17 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
के कंप्यूटर (जापान) 10.51 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
मीर (अमरीका) 8.59 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
पिज़ डेएंट (स्विट्जरलैंड) 6.27 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
स्टैंपीड (अमरीका) 5.17 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
जुक्वीन (जर्मनी) 5.09 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
वल्कैन (अमरीका) 4.29 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
सुपरमक(जर्मनी) 2.90 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
(स्रोत: टॉप500 सूची आरमैक्स लाइनपैक बेंचमार्क पर आधारित)
सूची बनाने के लिए एक ख़ास तरह के एकरेखीय समीकरण को हल करके कंप्यूटर की गति मापी जाती है.
इस परीक्षण में गणना की गति के अलावा डाटा ट्रांसफर जैसे मानकों का आकलन नहीं किया जाता. जबकि इनसे व्यावहारिक उपयोग के दौरान कंप्यूटर के प्रदर्शन पर प्रभाव पड़ सकता है.
इस सूची में पहले दस स्थानों पर रहे कंप्यूटरों में से पाँच कंप्यूटरों के निर्माता आईबीएम ने बीबीसी से हुई बातचीत में कहा कि अब इस सूची को तैयार करने की विधि को अब बदलने की ज़रूरत है और कंपनी इसी सप्ताह कोलाराडो के डेनेवर में होने वाले एक सम्मेलन में इस मुद्दे पर ज़ोर देगी.
आईबीएम के ज्यूरिच रिसर्च लैब के कंप्यूटेशनल साइंस विभाग के प्रमुख डॉ अलेसेंद्रो कुरिओनी ने बीबीसी से कहा, "किसी ख़ास समस्या को हल करने के आधार पर कंप्यूटर की क्षमता और उचच्-क्षमता के कंप्यूटरों के विकास की स्थिति मापने की विधि के अनुसार टॉप 500 की सूची बनाना पिछले दशकों तक उपयोगी तरीका था लेकिन अब हमें ज़्यादा व्यवहारिक तरीका अपनाने की जरूरत है जिससे व्यवहारिक उपयोग के दौरान इन सुपरकंप्यूटर के सबसे महत्वपूर्ण कार्य के आधार पर उनके प्रदर्शन का पता चले."

वास्तविक प्रदर्शन

अमरीका, सुपरकंप्यूटर, टाइटन
अमरीका के सुपरकंप्यूटर टाइटन को इस सूची में दूसरा स्थान मिला है.
एरिक स्ट्रोहमाएर कहते हैं, "लाइनपैक जैसे साधारण मानक के सहारे आज के जटिल कंप्यूटर सिस्टम में किसी अप्लीकेशन के वास्तविक प्रदर्शन के बारे में नहीं पता चल सकता."
चीनी भाषा में तियानहे-2 का अर्थ होता है मिल्की वे-2. इसे चीन की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ डिफेंस टेकनॉलजी ने विकसित किया है. यह चीन के दक्षिण-पूर्वी प्रांत गुआनडॉंग में रखा है.
इसमें इंटेल के बनाए कई तरह के मिश्रित प्रोसेसर का प्रयोग किया गया है. इसमें विश्वविद्यालय द्वारा डिज़ाइन किए गए ख़ास तरह के सीपीयू (सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट) का भी प्रयोग किया गया है.
हालाँकि सरे विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विभाग के प्रोफ़ेसर एलेन वुडवर्ड का कहना है कि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि चीन का सुपरकंप्यूटर व्यवहारिक उपयोग में अमरीकी कंप्यूटर से बेहतर है या नहीं.

स्मार्टफ़ोन,स्मार्टवॉच के बाद अब सोनी का 'स्मार्टविग'


रंगीन विग
टेक्नोलॉजी कंपनी सोनी ने अपने प्रोडक्ट ‘स्मार्टविग’ के पेटेंट के लिए अर्ज़ी दाख़िल की है.
फ़िलहाल क्षेत्र में वैसी टेक्नोलॉजी प्रोडक्ट को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है जिन्हें पहना भी जा सकता है.

साथ ही इसमें डॉटा प्रोसेस करने की क्षमता भी मौजूद है.सोनी के दरख़्वास्त में कहा गया है कि स्मार्टविग को वैसे लोग भी पहन सकते हैं जिनके बाल मौजूद हों और ये संचार के दूसरे उपकरणों से भी संपर्क साध सकता है.
सर्मार्टवॉच
अर्ज़ी में मुहैया करवाई गई जानकारी के मुताबिक़ स्मार्टविग सड़क पर चलने के काम में मदद कर सकता है और ब्लड प्रेशर से संबंधित जानकारियां भी जुटा सकता है.

गूगल और सैमसंग भी

हाल के दिनों में गूगल और सैमंसग ने भी वैसे प्रोडक्ट बाज़ार में उतारे हैं जिन्हें ‘वियेरेबिल टेक्नोलॉजी’ के नाम से जाना जाता है यानी जिन्हें पहना जा सकता है और वो रोज़मर्रा और दूसरे कई तरह के कामों में उपभोक्ता की मदद कर सकते हैं.
जापानी कंपनी सोनी ने कहा कि ये विग घोड़ों, आदमी, याक, भैंस के बालों, ऊन, चिड़ियों के परों या दूसरी तरह कृत्रिम सामग्रियों से तैयार किए जा सकते हैं.
गूगल ग्लास
इसमें जो संचार उपकरण या सेंसर लगे होते हैं वो बालों से छुप जाते हैं.
सोनी का कहना है कि ये दृष्टिहीन लोगों के बहुत काम आ सकता है जैसे सड़क पार करने का काम.
कंपनी के एक प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा कि सोनी ने ये फ़ैसला नहीं किया है कि इसे बाज़ार में बिक्री के लिए कब उतारा जाएगा.