आधुनिक शेरों की उत्पत्ति की कहानी



शेर
आधुनिक शेरों की उत्पत्ति और इतिहास का वैज्ञानिकों ने पता लगा लिया है.
जीवित शेरों और म्यूज़ियम में मौजूद नमूनों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि आधुनिक शेरों के सबसे क़रीबी पूर्वज 1,24,000 वर्ष पूर्व तक जीवित थे.
आधुनिक शेरों का विकास दो समूहों में हुआ. एक समूह पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका में चला गया और दूसरा समूह पश्चिमी अफ्रीका और भारत.
दूसरे समूह के शेर अब लुप्तप्राय हैं. इसका मतलब हुआ कि आधुनिक शेरों की आधी जैव विविधता खत्म होने की कग़ार पर पहुंच चुकी है.
इस अध्ययन के नतीजों को  बीएमसी इवोल्यूशनरी बायोलॉजी जर्नल में प्रकाशित किया गया है.
शेरों के इतिहास को खोजना बेहद कठिन कार्य रहा है. हाल का समय इस प्रजाति के लिए काफी मुश्किल भरा रहा है क्योंकि इंसानी गतिविधियों के चलते उनके अस्तित्व पर संकट छा गया है.
जीवाश्म रिकॉर्ड में निरंतरता का अभाव और शेरों के बिखरे आवास वाले इलाके इतिहास की कड़ी को जोड़ने में सबसे बड़ी बाधा रहे हैं.

उद्भव

इसलिए वैज्ञानिकों के अंतरराष्ट्रीय समूह ने दुनियाभर के म्यूज़ियमों और संग्रह केंद्रों में शेरों की प्राचीन डीएनए को खोजना शुरू किया.
इंग्लैंड के डरहम विश्वविद्यालय से जुड़े डॉ. रॉस बर्नेट के नेतृत्व में इस टीम ने विभिन्न प्रजातियों की डीएनए का अध्ययन किया.
टीम ने विलुप्त हो चुके उत्तरी अफ़्रीका के बारबेरी शेर से लेकर विलुप्त इरानी और मध्य व पश्चिमी अफ़्रीकी शेरों के नमूनों का अध्ययन किया.
शोधकर्ताओं ने एशिया और अफ़्रीका के अन्य हिस्सों में जीवित शेरों के डीएनए से प्राचीन डीएनए का मिलान किया और पता लगाने की कोशिश की कि विभिन्न प्रजातियों का विकास कैसे हुआ.
अध्ययन में खुलासा हुआ कि इस समय शेरों की जो एकमात्र प्रजाति पैंथेरा लियो मौजूद है, वो पहली बार पूर्वी-दक्षिणी अफ़्रीका में दिखी थी.
लगभग 1,24,000 वर्ष पूर्व विभिन्न प्रजातियों का विकास शुरू हो गया था.

अनुवांशिक अंतर

यह वही समय है जब उष्णकटिबंधीय जंगलों का पूरे ध्रुवीय अफ़्रीका में प्रसार हुआ और सहारा क्षेत्र सवाना में बदल गया.
महाद्वीप के दक्षिण और पूर्व रहने वाले शेर अलग हो गए और उनका विकास पश्चिमी व उत्तरी हिस्से में रहने वाले शेरों से अलग होना शुरू हुआ.
इससे दोनों शेरों के बीच आया अनुवांशिक अंतर आज भी मौजूद है.
"पश्चिमी और मध्य अफ़्रीका के शेर सोमालिया या बोत्सवाना की अपेक्षा भारतीय शेरों की प्रजाति से ज्यादा मिलते जुलते हैं."
डॉ. रॉस बर्नेट, शोधकर्ता
51,000 वर्ष पूर्व महाद्वीप सूख गया और सहारा का प्रसार हुआ. इससे उत्तर और दक्षिण का इलाका अलग हो गया.
इसी समय पश्चिम में रहने वाले शेरों की पहुंच मध्य अफ़्रीका तक हो गई, जो वहां रहने के ज्यादा अनुकूल था.
तबसे नील समेत अफ़्रीका की बड़ी नदियां इन शेरों को अलग करने में बड़ी बाधा बनी रहीं.
प्राचीन डीएन के अध्ययन से यह भी खुलासा हुआ कि आधुनिक शेरों की प्रजाति ने 21,000 वर्ष पहले अफ़्रीका से बाहर की यात्रा शुरू की और अंततः भारत पहुंचे.
इसके बहुत बाद, लगभग 5,000 वर्ष पूर्व शेरों का एक और समूह महाद्वीप से बाहर गया और मध्यपूर्व में स्थित ईरान में पहुंचा.
ये शेर अब लुप्त हो चुके हैं.

बारबेरी प्रजाति

भारत के काठियावाड़ में 400 से भी कम एशियाई शेर (पी. लियो पर्सिका) बचे हैं. इस प्रजाति को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर द्वारा लुप्तप्राय घोषित किया जा चुका है.
डॉ. बर्नेट ने बताया, ''पश्चिमी और मध्य अफ़्रीका के शेर सोमालिया या बोत्सवाना की अपेक्षा शेरों की भारतीय प्रजाति से ज्यादा मिलते जुलते हैं.''
दोनों के बीच भारी भौगोलिक दूरी के बावजूद इनमें ईरानी शेरों और उत्तरी अफ़्रीका के बारबेरी शेरों से ज्यादा समानता दिखती है.
डॉ. बर्नेट ने बताया, ''यह जानकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि लुप्त बारबेरी शेरों और उत्तरी अफ़्रीका व भारतीय शेरों के बीच बहुत नज़दीकी रिश्ता है.''
अपने आकार और गुम इतिहास के चलेत विशाल मांसभक्षी जानवरों में बारबेरी शेर ज्यादा रहस्यमय हैं.
कभी उत्तरी अफ़्रीका में बहुतायत में पाए जाने वाले बारबेरी शेर शारीरिक रूप से एशिया और अफ़्रीका में अन्य जगहों पर पाए जाने वाले शेरों से विशिष्ट थे.
अभी तक ये निश्चित नहीं है कि कोई बारबेरी शेर ज़िंदा है या नहीं और संरक्षणवादी इस उप-प्रजाति को फिर से जीवित करने की कोशिश में हैं.

संरक्षण

साक्ष्य बताते हैं कि कुछ शेर मोरक्को के शाही परिवार के संग्रह के हिस्से के रूप में बचे हो सकते हैं.
हालांकि पूर्व में हुए शोध और ताज़ा अध्ययन से पता चलता है कि वो असली बारबेरी शेर नहीं थे.

ऐसे सुलझी गुत्थी

  • ब्रिटेन के टॉवर ऑफ लंदन में कभी कैद रखे गए दो बारबेरी शेरों की हड्डियों से गुत्थी सुलझी.
  • टॉवर में इन शेरों का संरक्षित कंकाल खोजा गया.
  • लुप्त हो चुके गुफ़ा शेरों का यह सबसे आधुनिक प्रमाण है.
  • ये 14वीं और 15वीं शताब्दी तक जीवित थे.
  • इस कंकाल के डीएन ने ही वैज्ञानिकों को बारबेरी और भारतीय शेर के बीच करीबी संबंध को खोजने में मदद की.
यदि ऐसा है और बारबेरी शेर खत्म हो चुके हैं तो नए अध्ययन का नजीजा बताता है कि अनुवांशिक रूप से ज्यादा करीबी रहे भारतीय शेरों को उनके प्राकृतिक आवास में पुनः भेजा जा सकता है.
डॉ. बर्नेट के अनुसार, भविष्य में उत्तरी अफ़्रीका में शेरों को ले जाना एक जटिल प्रक्रिया होगी. ऐसे में उनका प्रजनन एक तरीका हो सकता है.
अफ़्रीका के शेरों की लगभग एक तिहाई संख्या पिछले 20 वर्षों में ग़ायब हुई है.
शोधकर्ता पश्चिमी और मध्य अफ़्रीका के शेरों को लेकर सबसे ज़्यादा चिंता जताते हैं, जो कि लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके हैं. इन दोनों इलाकों में क्रमशः 400 से 800 और 900 शेर बचे हुए हैं.
इन प्रजातियों के कुछ शेरों को चिड़ियाघरों में संरक्षित कर रखा गया है.

अब सिंथेटिक क्रोमोसोम तैयार


ख़मीर क्रोमोसोम
जैविक इंजीनियरिंग में एक बड़ी छलांग लगाते हुए वैज्ञानिकों ने ख़मीर का पहला सिंथेटिक गुणसूत्र (क्रोमोसोम) तैयार किया है.
इससे पहले अब तक सिंथेटिक डीएनए बैक्टीरिया जैसे सरल जीवों के लिए बनाया गया था.
ख़मीर की जीवन रचना ऐसी है जिसकी कोशिकाओं का एक केंद्र होता है, जो पौधों और जानवरों से मिलता जुलता है. इसमें 2,000 जीन्स होते हैं.
इसलिए ख़मीर के पहले 16 गुणसूत्रों को तैयार करना उभरते हुए सिंथेटिक बायोलॉजी विज्ञान की 'बड़ी उपलब्धि' मानी जा रही है.
शोध में ख़मीर में मौजूद मूल गुणसूत्रों को सिंथेटिक गुणसूत्रों से बदल दिया गया. वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किया गया गुणसूत्र ख़मीर में सफलतापूर्वक काम करने लगा.
इसके बाद वैज्ञानिकों ने ख़मीर के पुनरुत्पादन का भी निरीक्षण किया ताकि इसे व्यवहारिकता की कसौटी पर कसा जा सके.

'अप्रत्यक्ष खतरे'

शोध के लिए ख़मीर का प्रयोग बहुत उपयोगी माना जाता है. बेकिंग और मद्यकरण में ख़मीर का बड़े स्तर पर इस्तेमाल होता है और भविष्य में इसके औद्योगिक इस्तेमाल की भी बहुत संभावनाएं हैं.
कैलिफ़ोर्निया में एक कंपनी पहले भी सिंथेटिक बायोलॉजी की मदद से ख़मीर की ऐसी किस्म तैयार कर चुकी है जो मलेरिया की दवा का एक तत्व, आर्टेमिसिनिन पैदा कर सकती है.
ख़मीर क्रोमोसोम
ख़मीर में गुणसूत्र-lll का संश्लेषण एक अंतर्राष्ट्रीय टीम द्वारा किया गया. बाद में इसके परिणामों को साइंस जर्नल में प्रकाशित भी किया गया. (ख़मीर के गुणसूत्रों का नाम सामान्यतः रोमन अंकों पर रखा जाता है.)
शोध में वैज्ञानिकों की टीम की अगुवाई करने वाले, लैनगोन मेडिकल सेंटर न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के डॉक्टर जेफ़ बोएके का कहना है, "इससे सिंथेटिक बायोलॉजी की सुई सिद्धांत से हक़ीक़त की ओर बढ़ी है."
बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि शोध का परिणाम सच में रोमांचक है. उन्होंने कहा, "जिस हद तक हमने अनुक्रम बदले उसके बाद भी अंत में हमने स्वस्थ और खुश ख़मीर पाया."
नए गुणसूत्र को सिन-lll नाम दिया गया है. इसे बनाने में 273,871 डीएनए जोड़ों का इस्तेमाल किया गया है, जो ख़मीर के शरीर के मूल गुणसूत्र में मौजूद 316,667 डीएनए से थोड़ा कम है.
डॉक्टर बोएके ने बताया, "हमने उसके शरीर में 50 हज़ार से अधिक डीएनए कोड को बदल दिया था. इसके बावज़ूद ख़मीर न केवल साहसी निकला बल्कि उसने नए तरह के काम करने भी शुरू कर दिए. नए काम करने की तरक़ीब हमने उसके गुणसूत्र में मशीन की मदद से सिखाया."
ख़मीर के अंदर आए नए बदलाव का कारण रसायनिक परिवर्तन है, जिससे वैज्ञानिक उसके गुणसूत्रों में हज़ारों तरह की भिन्नता ला सकते हैं, जो जेनिटिक कोड को बदलने में मददगार होगा.
उम्मीद है कि ख़मीर के सिंथेटिक गुणसूत्रों की मदद से इसका प्रयोग उपयोगी टीकों और जीव ईंधन को बनाने में किया जा सकेगा.
आनुवांशिक संशोधन में एक जीव से दूसरे जीव के अंदर जीन को स्थानान्तरित किया जाता है, वहीं सिंथेटिक जीव विज्ञान में नए जीन का निर्माण किया जाता है.
मगर विज्ञान जगत से बाहर कुछ लोगों का मानना है कि इस शोध से वैज्ञानिक भगवान बनने की कोशिश कर रहे हैं. साथ ही वह इसके दूरगामी दुष्प्रभावों को नजरअंदाज़ कर रहे हैं.
ल्योड्स इंश्योरेंस बाज़ार ने 2009 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि नई तकनीक के खतरे अप्रत्यत्क्ष होते हैं.