ख़्वाब देखना बेहद ज़रूरी है क्योंकि उन्हीं ख़्वाबों को हक़ीक़त में तब्दील करने की कोशिश में कुछ नया होता है. ऐसा ही एक ख़्वाब देख रहे हैं स्पेन के एयरक्राफ़्ट डिज़ाइनर, ऑस्कर विनाल्स. वो एक ऐसा विमान बनाने का ख़्वाब देख रहे हैं, जो परमाणु रिएक्टर से चले और आवाज़ से भी तीन गुनी तेज़ रफ़्तार से उड़े.
उन्होंने अपने ख़्वाबों वाले इस विमान का नाम रखा है 'फ़्लैश फ़ाल्कन'.
अगर यह ख़्वाब हक़ीक़त में तब्दील होता है, तो लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे से आपको न्यूयॉर्क पहुंचने में महज़ तीन घंटे लगेंगे. आपके विमान की रफ़्तार होगी 3680 किलोमीटर प्रति घंटे और और उसका सफ़र भी शाही होगा.
हालांकि 'फ़्लैश फ़ाल्कन' अभी सिर्फ़ एक कल्पना है. मगर ऑस्कर विनाल्स ने इसका एक एनिमेशन वीडियो बनाया है, जो हैलो नाम के वीडियो गेम में दिखने वाले एयरक्राफ्ट जैसा लगता है.
स्पेनिश इंजीनियर ऑस्कर के डिज़ाइन वाले इस विमान की कई ख़ूबियां होंगी. ये 250 लोगों को लेकर उड़ान भर सकेगा. आवाज़ से भी तेज़ उड़ने वाले कॉन्कॉर्ड विमान से भी तेज़ होगी इसकी रफ़्तार. और, इसके पंख भी आज के विमान से दोगुने बड़े होंगे. इसके इंजनों में इतनी ताक़त होगी कि ये हेलीकॉप्टर की तरह अपनी जगह से ही उठकर उड़ सकेगा.
मगर ऑस्कर के इस कॉन्सेप्ट की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि ये एटमी ताक़त से उड़ेगा, आज के विमानों की तरह तेल से नहीं.
ऑस्कर कहते हैं कि वो हाइड्रोजन बम वाली तकनीक, यानी न्यूक्लियर फ्यूज़न से अपने विमान को ताक़त देना चाहते हैं. ऑस्कर के मुताबिक़, हमारी ज़रूरतों का ईंधन, न्यूक्लियर फ्यूज़न ही है. जिसमें दो परमाणुओं के मेल से ऊर्जा बनायी जाती है. हालांकि अभी इस ख़्वाब का साकार होना बहुत दूर की कौड़ी है.
आज की तारीख़ में न्यूक्लियर फ्यूज़न की तकनीक को लेकर कई तजुर्बे हो रहे हैं. इनमें सबसे अहम है फ्रांस में बन रहा फ्यूज़न रिएक्टर आइटर.
हालांकि ये भी अपने मूल कार्यक्रम से काफ़ी पीछे चल रहा है. कुछ निजी कंपनियां भी फ्यूज़न तकनीक को आज़माने की कोशिश कर रही हैं. फ्यूज़न तकनीक को भविष्य का ईंधन बताया जा रहा है. ये सस्ता भी होगा और इससे एटमी कचरा भी नहीं पैदा होगा.
मगर, अभी इसे बनाने के लिए एक भी रिएक्टर तैयार नहीं हो सका है. ऐसे में ऑस्कर विनाल्स के विमान का सपना पूरा होना अभी बहुत दूर की बात है.
1950 के दशक से ही विमान बनाने वाले इंजीनियर, एटमी रिएक्टर से विमान उड़ाने का ख़्वाब देख रहे हैं. पचास से दशक में आई एटमी तकनीक से सस्ती ऊर्जा तो मिलने लगी. मगर इसमें दिक़्क़त ये थी कि रिएक्टर बहुत बड़े होते थे, लेकिन उसका भी हल बहुत जल्दी निकल आया, जब पानी के जहाज़ों और पनडुब्बियों को एटमी रिएक्टर की मदद से चलाया जाने लगा.
पचास के दशक में विमानों के भी कई नए डिज़ाइन आए. शीत युद्ध के दौरान अमरीका और सोवियत संघ ने एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में कई नई तकनीकें ईजाद कीं. अमरीका ऐसे विमान बनाने लगा, जिन्हें देर तक हवा में रखा जा सके. जिन पर एटमी मिसाइलें तैनात की जा सकें. इस काम में एटमी रिएक्टर काफ़ी मददगार हो सकते थे.
क्योंकि उन्हें बार-बार ईंधन के लिए ज़मीन पर उतरने की ज़रूरत नहीं होती. विमान में अगर शिफ्ट में काम करने वाले क्रू मेम्बर होते, तो ऐसे विमान कई दिनों तक हवा में रह सकते थे.
लेकिन, ब्रिटेन के एरोस्पेस टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के साइमन वीक्स कहते हैं कि एटमी रिएक्टर से जहाज़ उड़ाने की राह में कई मुश्किलें हैं. इसमें सबसे पहले तो एटमी कचरे को ठिकाने लगाने का इंतज़ाम करना होगा. फिर रिएक्टर के इर्द-गिर्द सुरक्षा घेरे का इंतज़ाम करना होगा. ताकि विमान में सवार मुसाफिर रेडिएशन का सामना न करें.
दुनिया में गिने चुने ही ऐसे विमान हुए हैं जो एटमी रिएक्टर के साथ हवा में रहे हैं. इनमें से एक था अमरीका का B-36 बमवर्षक विमान. ये पचास के दशक की शुरुआत में उड़ा करता था. इसे एटमी ताक़त से उड़ाया नहीं गया था. इसके लिए तेल ही इस्तेमाल होता था. बस इस विमान में एटमी रिएक्टर रखकर उड़ाया गया था. इसके लिए भी इतने इंतज़ाम करने पड़े थे कि विमान का वज़न 11 हज़ार किलो बढ़ गया था.
फिर, अगर किसी को ये मालूम हो कि विमान में एटमी रिएक्टर है, तो बहुत मुश्किल है कि लोग उस विमान में सफ़र कर सकें.
जानकार कहते हैं कि एटमी ताक़त से उड़ान भरने वाले विमान बनाने में अभी भी पचास से सौ साल का वक़्त लगेगा.
तब तक हमें ऑस्कर विनाल्स के सपने 'फ्लैश फाल्कन' से काम चलाना पड़ेगा. इसकी सबसे ख़ास बात ये है कि ये न्यूक्लियर फिज़न के बजाय न्यूक्लियर फ्यूज़न तकनीक की मदद से उड़ान भरेगा. जिसमें एटमी कचरा नहीं निकलता. जो एटमों की टक्कर से नहीं, उनके मेल से ऊर्जा पैदा करता है.
हालांकि अभी दुनिया में ऐसा कोई रिएक्टर नहीं बना है जो न्यूक्लियर फ्यूज़न से ऊर्जा पैदा कर सके. मगर इस दिशा में कई जगह काम चल रहा है. वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इंसान के पास जल्द ही न्यूक्लियर फ्यूज़न से ऊर्जा पैदा करने की तकनीक होगी. ऑस्कर विनाल्स को भी उसी दिन का इंतज़ार है. हालांकि ये उनकी ज़िंदगी में मुमकिन होगा, ऐसा लगता नहीं.
जैसे कि फ्रांस में बन रहा फ्यूज़न रिएक्टर आइटर अभी भी तैयार होने में दस बरस का वक़्त लेगा. और अगर ये रिएक्टर कामयाब भी हो जाएंगे, तो चुनौतियों की शुरुआत भर होगी. फिर इतने छोटे फ्यूज़न रिएक्टर तैयार करना होगा जो विमान में लगाए जा सकें.
साइमन वीक्स मानते हैं कि इसमें बीस से तीस साल लग जाएंगे. ऐसा एटमी रिएक्टर बनाना बहुत टेढ़ी खीर है.
आवाज़ से तीन गुना तेज़ गति से उड़ने वाला विमान बनाना तो फिर भी आसान है. मगर उसके लिए ईंधन का जुगाड़ करना टेढ़ी खीर है. आज केरोसीन से विमान उड़ाए जाते हैं. इसका इस्तेमाल बहुत आसान है. इसे सिर्फ़ ईंधन ही नहीं, कूलिंग और लुब्रिकेशन के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है. इसमें एक ही दिक़्क़त है कि इससे प्रदूषण बहुत होता है.
पूरी तरह से न्यूक्लियर फ्यूज़न से चलने वाले विमान बनने में सौ बरस लगने का अंदेशा है. साइमन वीक्स मानते हैं कि उससे पहले हाइब्रिड विमान बन सकते हैं. जिनमें विमान को ज़मीन से उड़ने के लिए तेल का और फिर हवा में उड़ने के लिए फ्यूज़न एनर्जी का इस्तेमाल हो.
'फ्लैश फाल्कन' का ख़्वाब तो उससे बहुत आगे का है. आज की तकनीक से उसे नहीं साकार किया जा सकता. लेकिन, इंसान ने बहुत से ऐसे ख़्वाब देखे हैं, जो शुरू में ऐसे लगे थे. क्या पता, आगे चलकर ये असंभव बात, संभव में तब्दील हो जाए.