ईस्ट इण्डिया कम्पनी
ईस्ट इण्डिया कम्पनी (अंग्रेज़ी: East India Company) एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी, जिसने 1600 ई. में शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसकी स्थापना 1600 ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा हुई थी। यह लन्दन के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया था। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य धन कमाना था। 1708 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिद्वन्दी कम्पनी 'न्यू कम्पनी' का 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में विलय हो गया। परिणामस्वरूप 'द यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ मर्चेंट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई। कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रेख 'गर्वनर-इन-काउन्सिल' करती थी।
कम्पनी का भारत आगमन
1608 ई. में कम्पनी का पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, क्योंकि कम्पनी अपने व्यापार की शुरुआत मसालों के व्यापारी के रूप में करना चाहती थी।
व्यापार के लिए संघर्षकम्पनी ने सबसे पहले व्यापार की शुरुआत मसाले वाले द्वीपों से की। 1608 ई. में उसका पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, परन्तु पुर्तग़ालियों के प्रतिरोध और शत्रुतापूर्ण रवैये ने कम्पनी को भारत के साथ सहज ही व्यापार शुरू नहीं करने दिया। पुर्तग़ालियों से निपटने के लिए अंग्रेज़ों को डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता और समर्थन मिला और दोनों कम्पनियों ने एक साथ मिलकर पुर्तग़ालियों से लम्बे अरसे तक जमकर तगड़ा मोर्चा लिया। 1612 ई. में कैप्टन बोस्टन के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के एक जहाज़ी बेड़े ने पुर्तग़ाली हमले को कुचल दिया और अंग्रेज़ों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में व्यापार शुरू कर दिया। 1613 ई. में कम्पनी को एक शाही फ़रमान मिला और सूरत में व्यापार करने का उसका अधिकार सुरक्षित हो गया। 1622 ई. में अंग्रेज़ों ने ओर्मुज पर अधिकार कर लिया, जिसके फलस्वरूप वे पुर्तग़ालियों के प्रतिशोध या आक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित हो गये।कम्पनी की सफलताएँ1615-18 ई. में सम्राट जहाँगीर के समय ब्रिटिश नरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद ही कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारख़ानें स्थापित किये। किन्तु कम्पनी को पहली महत्त्वपूर्ण सफलता मार्च, 1640 ई. में मिली, जब उसने विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चन्द्रगिरि के राजा से आधुनिक चेन्नई नगर का स्थान प्राप्त कर लिया। जहाँ पर उन्होंने शीघ्र ही सेण्ट जार्ज क़िले का निर्माण किया। 1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तग़ाली राजकुमारी से विवाह के दहेज मेंबम्बई का टापू मिल गया। चार्ल्स ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली।
1687 ई. में कम्पनी के एक वफ़ादार सेवक जॉब चारनाक ने बंगाल के नवाब इब्राहीम ख़ाँ के निमंत्रण पर भागीरथी की दलदली भूमि पर स्थित सूतानाती गाँव मेंकलकत्ता नगर की स्थापना की। बाद को 1698 ई. में सूतानाती से लगे हुए दो गाँवों, कालिकाता और गोविन्दपुर, को भी इसमें जोड़ दिया गया। इस प्रकार पुर्तग़ालियों के ज़बर्दस्त प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 90 वर्षों के अन्दर तीन अति उत्तम बन्दरग़ाहों-बम्बई, मद्रास और कलकत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। इन तीनों बन्दरग़ाहों पर क़िले भी थे। ये तीनों बन्दरग़ाह प्रेसीडेंसी कहलाये और इनमें से प्रत्येक का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के 'कोर्ट ऑफ़ प्रोपराइटर्स' द्वारा नियुक्त एक गवर्नर के सुपुर्द किया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संचालन लन्दन में 'लीडल हॉल स्ट्रीट' स्थित कार्यालय से होता था।
कम्पनी को सीमा शुल्क से मुक्ति
1691 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल के नवाब इब्राहीम ख़ाँ से एक फ़रमान प्राप्त हुआ, जिसमें कम्पनी को बंगाल में सिर्फ़ 3000 रुपये की राशि सालाना देने पर सीमा शुल्क के भुगतान से मुक्त कर दिया गया था। अन्य यूरोपीय कम्पनियों को तीन प्रतिशत शुल्क अदा करना पड़ता था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सर्जन 'डॉ. हैमिल्टन'[1] की चिकित्सा सेवाओं से ख़ुश होकर सम्राट फ़र्रुख़सियर ने 1715 ई. में नया फ़रमान जारी करते हुए कम्पनी को सीमा शुल्क से मुक्त करने वाले पहले फ़रमान की पुष्टि कर दी।
व्यापार में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के इस एकाधिकार का कई अंग्रेज़ व्यापारियों ने विरोध किया और सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में 'दि इण्डियन कम्पनी ट्रेडिंग टु दि ईस्ट इण्डीज़' नामक एक प्रतिद्वन्द्वी संस्था की स्थापना की। नयी और पुरानी दोनों कम्पनियों में कड़ी प्रतिद्वन्द्विता चल पड़ी, जिसमें पुरानी कम्पनी के पैर उखड़ने लगे, किन्तु भारत और इंग्लैण्ड दोनों ही जगह अत्यन्त कटु और अप्रतिष्ठाजनक प्रतिद्वन्द्विता के बाद 1708 ई. में समझौता हुआ, जिसके अंतर्गत दोनों को मिलाकर एक कम्पनी बना दी गई और उसका नाम रखा गया 'दि यूनाइडेट कम्पनी ऑफ़ दि मर्चेण्ट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इण्डीज़'। यह संयुक्त कम्पनी बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से ही मशहूर रही और डेढ़ सौ वर्षों में वह मात्र एक व्यापारिक निगम न रहकर एक ऐसी राजनीतिक एवं सैनिक संस्था बन गई, जिसने सम्पूर्ण भारत पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली।
1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तग़ाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में दहेज स्वरूप बम्बई का टापू मिल गया था। चार्ल्स द्वितीय ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली।
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कम्पनी के साधारण सदस्यों की एक सभा थी, जिसके कार्य का नियंत्रण एक गवर्नर और चौबीस समितियों को दिया गया था। ये चौबीस समितियाँ चौबीस व्यक्ति थे, जिन्हें बाद में 'निदेशक' कहा जाने लगा और उनकी सभा को 'निदेशक मंडल'। निदेशक का कार्यकाल एक वर्ष का होता था, और वे अगले वर्ष के लिए पुनः चुने जा सकते थे। कम्पनी मात्र एक व्यापारिक संस्था थी। उसे केवल व्यापारिक निकायों के लिए मान्य विधायी और न्यायिक अधिकार प्राप्त हुए थे। इसके अंतर्गत उसे कारावास और अर्थदंड आरोपित करने की शक्ति अंग्रेज़ क़ानूनों के अंतर्गत प्रदान की गई थी। 1635 मेंइंग्लैण्ड में एक और कम्पनी को अनुमति प्राप्त हो गई, जिससे पुरानी कम्पनी को कठिनाई हुई और दोनों कम्पनियों में प्रतिद्वंदिता होने लगी। जिसका निराकरण करने का प्रयत्न किया गया, जिससे भविष्य की 'ज्वाइंट स्टॉक' कम्पनियों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1662 ई. में जार्ज आक्सेनडेन कम्पनी की फ़ैस्ट्री का अध्यक्ष बनाया गया था। 1694 में इंग्लेंड के हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रस्ताव आया कि इंग्लेंड के प्रत्येक नागरिक को विश्व के किसी भाग में व्यापार करने का अधिकार है, यदि संसद उसे प्रतिबंधित न कर दे। इस प्रस्ताव के उपरांत 1698 में एक और कम्पनी 'दी इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग टू दी ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई, जिससे लंदन कम्पनी संकट में आ गई 1709 में दोनों कम्पनियों का विलीनीकरण हुआ और 'दी युनाइटेड ईस्ट इण्डिया कम्पनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ इंग्लेंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' अस्तित्व में आई और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से विख्यात हुई। 1717 ई. में ही कम्पनी ने दस्तक प्रक्रिया शुरू कर दी थी।[2]
कम्पनी का सौभाग्य
भारत में इस कम्पनी की प्रभुसत्ता सहसा ही नहीं स्थापित हो गई। इसमें उसे सौ से भी अधिक वर्षों का समय लगा और इस अवधि में उसे फ़्राँस और डचकम्पनियों तथा भारतीयों से अनेक युद्ध भी करने पड़े। यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी कम्पनी का सौभाग्य ही था कि, भारत पर प्रभुसत्ता का दावा करने वाली मुग़लसरकार धीरे-धीरे कमज़ोर होती गई और देश अठारहवीं शताब्दी के दौरान छोटे-छोटे अनेक मुस्लिम और हिन्दू राज्यों में बँट गया। इन राज्यों में परस्पर कोई भी एकता न रही। मुस्लिम राज्य न केवल हिन्दू राज्यों के ख़िलाफ़ थे, वरन उनमें आपस में भी एकता न थी और न ही उनके मन में दिल्ली में शासन करने वाले मुग़ल सम्राट के प्रति कोई निष्ठा थी। यह फूट ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए वरदान सिद्ध हुई। जून 1756 ई. में जब नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर हमला किया, तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के फ़ोर्ट विलियम का गवर्नर ड्रेक रोगर था। इस कम्पनी ने 1761 ई. में वॉडीवाश का युद्ध जीतकर फ़्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत से सफ़ाया कर दिया। सन् 1757 ई. में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर उसका प्रभुत्व वस्तुत: पहले ही स्थापित हो चुका था। विलियम नाट (1782 से 1845 ई. तक) ईस्ट इण्डिया कम्पनी की बंगाल सेना में 1800 ई. में एक सैनिक पदाधिकारी होकर आया। इसकी अतिशीघ्र पदोन्नति हुई और 1839 ई. में उसे कंदहार स्थित ब्रिटिश सेनाओं का नेतृत्व सौंपा गया। इसी समय पर कम्पनी ने सैम्युअल आकमटी को मद्रास का सेनापति नियुक्त किया था।
कम्पनी का वर्चस्व
मुग़ल सम्राट शाहआलम द्वितीय असहाय सा कम्पनी की फ़ौजों का बढ़ाव और विजय देखता रहा। उसके देखते-देखते कम्पनी ने मैसूर के मुस्लिम राज्य को हड़प लिया और हैदराबाद के निज़ाम ने कम्पनी के आगे आत्म समर्पण कर दिया। पर वह कुछ भी न कर सका। हाँ, उसे इस बात से अलबत्ता कुछ सन्तोष मिला कि कम्पनी ने मराठों की शक्ति को भी काफ़ी क्षीण कर दिया था। राजपूत वीरे थे, किन्तु शुरू से ही उनमें आपस में फूट थी। उन्होंने आत्मरक्षा के लिए कोई वार किये बिना ही कम्पनी के आगे घुटने टेक दिये। इसी समय डेविड आक्टरलोनी, जो कम्पनी की सेवा में एक मुख्य सेनानायक था, मराठों से दिल्ली की रक्षा की।वारेन हेस्टिंग्स (1813-23) के प्रशासन काल में मराठों द्वारा आत्म समर्पण कर दिये जाने के बाद तो मुग़ल सम्राट वस्तुत: कम्पनी का पेंशनयुक्त बन गया। 1929 ई. में आसाम, 1843 ई. में सिन्ध, 1849 ई. में पंजाब और 1852 ई. में दक्षिणी बर्मा भी कम्पनी के शासन में आ गया। वास्तव में अब बर्मा (वर्तमानम्यांमार) से पेशावर तक कम्पनी का पूर्ण आधिपत्य था।
मुख्य लेख : सिपाही विद्रोह
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से व्यापारिक अधिकार और एकाधिपत्य पहले ही हस्तान्तरित किया जा चुका था और इस प्रकार वह ग्रेट ब्रिटेन के सम्राट के प्रशासनिक अभिकरण के रूप में कार्य कर रही थी। कम्पनी के शासनकाल में कई पूर्वी विद्रोह हुए थे। जिस समय चारों तरफ़ शान्ति नज़र आ रही थी, उसी समय अचानक 1857 ई. में भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। ब्रिगेडियर नील जेम्स ने 11 जून, 1857 ई. को इस विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। कम्पनी ने कुछ 'गद्दार' भारतीयों की मदद से विद्रोह को दबा तो दिया, लेकिन भारतीयों के कुछ वर्गों में विरोध और बग़ावत की आग भड़कती रही। यह बग़ावत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए घातक सिद्ध हुई। 1858 ई. में कम्पनी को समाप्त कर दिया गया और भारत की प्रभुसत्ता ब्रिटेन के सम्राट ने स्वयं ग्रहण कर ली।
कोलकाता नगर की स्थापना
भारत पर प्रभुसत्ता
सिपाही विद्रोह
'ख़त्म हो जाएंगे बहुत से समुद्री जीव'
दुनिया भर के समुद्रों में ऐसिड का स्तर 'अभूतपूर्व गति' से बढ़ता जा रहा है और संभव है कि यह पिछले 30 करोड़ सालों में सबसे ज़्यादा हो.
वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसिड का स्तर बढ़ने की यह प्रक्रिया साल 2100 में 170 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है.
शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं इसके लिए मनुष्यों द्वारा उनका मानना है कि इन परिस्थितियों में 30 प्रतिशत समुद्री प्रजातियों का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा.
क्लिक करेंकार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.
पोलैंड में अगले हफ़्ते वैश्विक पर्यावरण के मसले पर होने वाली बैठक में इस अध्ययन को पेश किया जाएगा.
घुलता ऐसिड
"साल 2100 में जिस तरह ऐसिड का स्तर बढ़ने की संभावना है उसमें कोई भी मोलस्क ज़िंदा नहीं रह सकता. यह निश्चित रूप से बेहद चौंकाने वाला है"
प्रोफ़ेसर ज्यां पियरे गटूसो
इस मुद्दे पर दुनिया के 500 से ज़्यादा जाने माने विशेषज्ञ साल 2012 में कैलिफ़ोर्निया में जुटे थे.
इंटरनेशनल बायोस्फ़ेयर-जियोस्फ़ेयर कार्यक्रम की अगुआई में हुए अध्ययन की रिपोर्ट अब प्रकाशित कर दी गई है.
इसमें कहा गया है कि ऐसिड स्तर बढ़ाने में इंसानी गतिविधियों का हाथ है जो हर दिन दो करोड़ 40 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड समुद्र में घोल रहे हैं.
इतनी भारी मात्रा में कार्बन घुलने से समुद्र के पानी का रासायनिक स्वरूप बदल गया है.
औद्योगिक क्रांति
औद्योगिक क्रांति की शुरूआत से लेकर अब तक पानी 26 फ़ीसदी ज़्यादा ऐसिडिक हो गया है.
क्लिक करेंफ्रांस की राष्ट्रीय शोध एजेंसी सीएनआरसी के प्रोफ़ेसर ज्यां पियरे गटूसो कहते हैं, ''मेरे साथियों ने भूगर्भीय रिकॉर्ड में कभी इतनी तेज़ी से बदलाव होते नहीं देखा है.''
वैज्ञानिकों को सबसे ज़्यादा चिंता है क्लिक करेंप्रवाल भित्तियों समेत समुद्री प्रजातियों पर पड़ने वाले असर की.
समुद्र की गहराई में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि जहां पानी में ऐसिड का स्तर कार्बन डाई ऑक्साइड की वजह से ज़्यादा है वहां समुद्रिक जैव विविधता का 30 फ़ीसदी हिस्सा इस शताब्दी के अंत तक ख़त्म हो जाएगा.
भविष्य की तस्वीर
शोधकर्ता मानते हैं कि ये आंकड़े भविष्य की तस्वीर दिखाते हैं.
प्रोफ़ेसर गटूसो कहते हैं, ''साल 2100 में जिस तरह ऐसिड का स्तर बढ़ने की संभावना है उसमें कोई भी मोलस्क ज़िंदा नहीं रह सकता. यह निश्चित रूप से बेहद चौंकाने वाला है."
उन्होंने कहा, "ये तस्वीर पूरी तरह से सही नहीं है. इन जगहों पर केवल सामुद्रिक ऐसिड बढ़ रहा है लेकिन ये इस शताब्दी में बढ़ रहे तापमान को नहीं दिखाती. अगर आप दोनों को मिला दें तो स्थिति बहुत नाटकीय हो जाएगी.''
ऐसिड का सबसे ज़्यादा असर आर्कटिक और क्लिक करेंअंटार्कटिक में देखा जा रहा है.
नुकसानदायक
इन समुद्रों में कार्बन कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा और गैस का बढ़ता स्तर उन्हें बाक़ी दुनिया के मुक़ाबले बहुत तेज़ी से ऐसिड युक्त बना रहा है.
यह स्थिति समुद्री जीवों के लिए बेहद नुकसानदायक है.
शोधकर्ताओं का मानना है कि 2020 तक आर्कटिक का दस प्रतिशत हिस्सा उन प्रजातियों के लिए असह्य हो जाएगा जिनका कवच कैल्शियम कार्बोनेट से बनता है.
सामुद्रिक संरक्षण ज़ोन बनाने से कुछ समय के लिए मदद मिल सकती है लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि लंबी अवधि में केवल उत्सर्जन में कमी ही ऐसिड स्तर में बढ़ोत्तरी की समस्या से राहत दे सकती है.
समुद्र में 20 फीट नीचे रात बिताएंगे?
जब लग्ज़री होटल रूम की बात होती है तो कई लोग कल्पनाओं की उड़ान भरने लगते हैं. एक ऐसी ही कल्पना अब साकार होने जा रही है.
ये कल्पना है समुद्र में पानी के बीच बने होटल, जहां आप आरामदायक ही नहीं, बल्कि लहरों के नीचे, रंगबिरंगी मछलियों और समुद्री जीवों के बीच अनोखा अनुभव प्राप्त कर सकते हैं.
लहरों के नीचे मछलियों के बीच आने वाले दिनों में पेंटहाउस सुइट के बजाय समुद्र की सतह से 20 फीट नीचे स्थित कमरा लोगों की पहली पसंद बनकर उभर सकता है.
क्लिक करेंसोने की कल्पना ख़तरनाक लग सकती है लेकिन पानी के अंदर कमरे बनाने के लिए ज़रूरी तकनीक अच्छी तरह स्थापित और जाँची परखी है.
पानी के अंदर 'वाटर डिस्कस' नाम से होटल बनाने की योजना बना रही पोलैंड की कंपनी 'डीप ओशन टैक्नोलॉजी' में प्रोजेक्ट मैनेजर रॉबर्ट बर्सीविक्ज़ तो ऐसा ही मानते हैं.
इस होटल को खींचकर किसी भी उपयुक्त जगह पर ले जाया जा सकेगा और स्थापित किया जा सकेगा.
इस होटल में पानी के भीतर 22 कमरे होंगे. पानी की सतह के ऊपर भी इसी तरह का हिस्सा है और दोनों हिस्सों को सीढ़ियों और लिफ्ट से जोड़ने की योजना है.
फिल्टर
बर्सीविक्ज़ ने कहा, "अब ऐसी पनडुब्बियां बनाना संभव है जो समुद्र में 500 मीटर गहराई तक जा सकती हैं, तो पानी के नीचे होटल बनाना मुश्किल नहीं है."
उनका कहना है कि उस तकनीक को अब नए तरीक़े से इस्तेमाल किया जा रहा है.
पनडुब्बी बनाने से होटल बनाना आसान है क्योंकि होटल को 15 मीटर की गहराई से नीचे नहीं रखा जा सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पानी धूप के लिए फ़िल्टर का काम करता है और 15 मीटर से नीचे नीले रंग के अलावा बाक़ी रंग धुल जाते हैं.
इसका मतलब है कि क्लिक करेंसमुद्र की रंगारंग दुनिया को क़रीब से देखने के लिए होटल के कमरों को छिछले पानी में होना चाहिए.
बर्सीविक्ज़ का कहना है, "हमारी योजना 10 मीटर की गहराई तक कमरे मुहैया कराने की है क्योंकि इसी क्षेत्र में समुद्र का सबसे ख़ूबसूरत नजारा दिखाई देता है."
लेकिन इसमें सबसे बड़ी चुनौती पानी के नीचे स्थित होटल से होने वाले शोर को क़ाबू में रखना है. शोरगुल से मछलियां और दूसरे समुद्री जीव दूर भाग सकते हैं जिससे पानी के नीचे होटल बनाने का मकसद ही ख़त्म हो जाएगा.
डिजाइन
बर्सीविक्ज़ ने कहा कि सावधानी से डिजाइन बनाकर इस समस्या का समाधान ढूंढ लिया गया है. इसके लिए शौचालय, पंप और वातानुकूलन से जुड़े उपकरणों को होटल के बीच वाले हिस्से में रखा जाएगा.
साथ ही यह भी अहम है कि यह होटल स्थानीय क़ानूनों और नियमों का पालन करे. लेकिन यह जटिल मामला हो सकता है क्योंकि इस तरह के निर्माण में कौन से नियम लागू होंगे.
बर्सीविक्ज़ ने कहा, "समुद्री नियमों को लेकर हर देश के अपने अपने क़ानून हैं. इस होटल को आप पनडुब्बी जैसा उपकरण भी मान सकते हैं, एक जहाज़ भी मान सकते हैं या फिर समुद्र से तेल निकालने के लिए बनाया गया ढांचा भी मान सकते हैं."
इस होटल को स्थापित करने के लिए समुद्र में जगह खोजना भी मुश्किल हो सकता है.
साउथम्पटन विश्वविद्यालय में समुद्री क़ानूनों के विशेषज्ञ डॉक्टर एलेक्ज़ेंद्रोस तोवास के मुताबिक़ ब्रिटेन के तट से 12 नॉटिकल मील के अंदर होटल स्थापित किया जा सकता है लेकिन इसके लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी. साथ ही इसे समुद्री पर्यावरण के लिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का भी पालन करना पड़ेगा.
लेकिन फिलहाल ऐसे होटल को क्लिक करेंब्रिटेन के जलक्षेत्र में बनाए जाने की कोई योजना नहीं है.
सर्फिंग और नौकायन
ब्रिटिश हॉस्पिटैलिटी एसोसिएशन के प्रवक्ता तबिता एल्डरिच स्मिथ का कहना है कि ऐसा होटल ब्रिटेन में शायद ही कभी बन पाए.
उन्होंने कहा, "ऐसा होटल शानदार होगा लेकिन हमारा ठंडा और ज्वार भाटा वाला समुद्री पानी भीतर ठहरने के बजाए सर्फिंग और नौकायन के लिए बेहतर हैं."
अमरीका के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र में स्थित गरम पानी वाले समुद्र इसके लिए उपयुक्त हैं. फ्लोरिडा के तट पर स्थित दो बेडरूम वाला जूल्स अंडरसी लॉज साल 1986 से आंगतुकों को 31 फीट की गहराई पर ठहरा रहा है.
इस ढांचे को 1970 के दशक में प्यूर्तो रिको के तट पर समुद्री प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था.
लेकिन जूल्स का तरीका डीप सी टेक्नोलॉजी के प्रस्तावित होटल से अलग है. इसका पूरा ढांचा पानी के नीचे है और केवल स्कूबा गियर पहनकर ही वहां जाया जा सकता है.
तंज़ानिया में पेम्बा द्वीप के तट पर मांटा रिज़ॉर्ट में पानी के नीचे कमरे बने हैं. यह वॉटर डिस्कस या जूल्स अंडरसी लॉज की तरह समुद्र की तलहटी से नहीं जुड़ा है.
यह समुद्र की सतह पर तैर रहे एक ढांचे से जुड़ा है. बहने से बचने के लिए इसने नाव की तरह लंगर डाला है. आंगतुक तैर रहे ढांचे से सीढ़ियों के ज़रिए होटल के कमरों में घुसते हैं.