चीन का सुपरकंप्यूटर है दुनिया में सबसे तेज़


चीन, सुपरकंप्यूटर तियानहे-2
सुपरकंप्यूटर तियानहे-2 को इस साल जून में भी दुनिया का सबसे शक्तिशाली कंप्यूटर चुना गया था.
चीन के सुपरकंप्यूटर तियानहे-2 ने दुनिया के सबसे तेज़ कंप्यूटर सिस्टम का अपना ख़िताब बरकरार रखा है.
लिनपैक नामक मानक टेस्ट के अनुसार तियानहे-2 33.86 पेटाफ़्लॉप प्रति सेकेंड यानी 3,38,630 खरब प्रति सेकेंड की दर से गणना कर सकता है.

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तियानहे-2 पहली बार इस वर्ष जून में दुनिया का सबसे तेज़ कंप्यूटर सिस्टम बना था. जून में आई सूची में मात्र एक बदलाव हुआ है.
जर्मनी के मैनहिम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर के नेतृत्व में साल में दो बार दुनिया के 500 सबसे तेज़ कंप्यूटरों की सूची बनाई जाती है.
इस सूची में दूसरे स्थान पर अमरीका का सुपरकंप्यूटर टाइटन है लेकिन तियानहे-2 के अंक टाइटन को मिले अंक से करीब दोगुने हैं.
टाइटन अमरीकी ऊर्जा विभाग का सुपरकंप्यूटर है और टेनिसी राज्य के ओक रिज़ नेशनल लेब्रोटरी में रखा हुआ है.

गति का मानक

दुनिया के सबसे तेज़ कंप्यूटर

तियानहे-2 (चीन) 33.86 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
टाइटन (अमरीका) 17.59 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
सिक्वोया (अमरीका) 17.17 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
के कंप्यूटर (जापान) 10.51 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
मीर (अमरीका) 8.59 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
पिज़ डेएंट (स्विट्जरलैंड) 6.27 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
स्टैंपीड (अमरीका) 5.17 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
जुक्वीन (जर्मनी) 5.09 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
वल्कैन (अमरीका) 4.29 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
सुपरमक(जर्मनी) 2.90 पेटाफ्लॉप प्रति सेकेंड
(स्रोत: टॉप500 सूची आरमैक्स लाइनपैक बेंचमार्क पर आधारित)
सूची बनाने के लिए एक ख़ास तरह के एकरेखीय समीकरण को हल करके कंप्यूटर की गति मापी जाती है.
इस परीक्षण में गणना की गति के अलावा डाटा ट्रांसफर जैसे मानकों का आकलन नहीं किया जाता. जबकि इनसे व्यावहारिक उपयोग के दौरान कंप्यूटर के प्रदर्शन पर प्रभाव पड़ सकता है.
इस सूची में पहले दस स्थानों पर रहे कंप्यूटरों में से पाँच कंप्यूटरों के निर्माता आईबीएम ने बीबीसी से हुई बातचीत में कहा कि अब इस सूची को तैयार करने की विधि को अब बदलने की ज़रूरत है और कंपनी इसी सप्ताह कोलाराडो के डेनेवर में होने वाले एक सम्मेलन में इस मुद्दे पर ज़ोर देगी.
आईबीएम के ज्यूरिच रिसर्च लैब के कंप्यूटेशनल साइंस विभाग के प्रमुख डॉ अलेसेंद्रो कुरिओनी ने बीबीसी से कहा, "किसी ख़ास समस्या को हल करने के आधार पर कंप्यूटर की क्षमता और उचच्-क्षमता के कंप्यूटरों के विकास की स्थिति मापने की विधि के अनुसार टॉप 500 की सूची बनाना पिछले दशकों तक उपयोगी तरीका था लेकिन अब हमें ज़्यादा व्यवहारिक तरीका अपनाने की जरूरत है जिससे व्यवहारिक उपयोग के दौरान इन सुपरकंप्यूटर के सबसे महत्वपूर्ण कार्य के आधार पर उनके प्रदर्शन का पता चले."

वास्तविक प्रदर्शन

अमरीका, सुपरकंप्यूटर, टाइटन
अमरीका के सुपरकंप्यूटर टाइटन को इस सूची में दूसरा स्थान मिला है.
एरिक स्ट्रोहमाएर कहते हैं, "लाइनपैक जैसे साधारण मानक के सहारे आज के जटिल कंप्यूटर सिस्टम में किसी अप्लीकेशन के वास्तविक प्रदर्शन के बारे में नहीं पता चल सकता."
चीनी भाषा में तियानहे-2 का अर्थ होता है मिल्की वे-2. इसे चीन की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ डिफेंस टेकनॉलजी ने विकसित किया है. यह चीन के दक्षिण-पूर्वी प्रांत गुआनडॉंग में रखा है.
इसमें इंटेल के बनाए कई तरह के मिश्रित प्रोसेसर का प्रयोग किया गया है. इसमें विश्वविद्यालय द्वारा डिज़ाइन किए गए ख़ास तरह के सीपीयू (सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट) का भी प्रयोग किया गया है.
हालाँकि सरे विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विभाग के प्रोफ़ेसर एलेन वुडवर्ड का कहना है कि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि चीन का सुपरकंप्यूटर व्यवहारिक उपयोग में अमरीकी कंप्यूटर से बेहतर है या नहीं.

स्मार्टफ़ोन,स्मार्टवॉच के बाद अब सोनी का 'स्मार्टविग'


रंगीन विग
टेक्नोलॉजी कंपनी सोनी ने अपने प्रोडक्ट ‘स्मार्टविग’ के पेटेंट के लिए अर्ज़ी दाख़िल की है.
फ़िलहाल क्षेत्र में वैसी टेक्नोलॉजी प्रोडक्ट को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है जिन्हें पहना भी जा सकता है.

साथ ही इसमें डॉटा प्रोसेस करने की क्षमता भी मौजूद है.सोनी के दरख़्वास्त में कहा गया है कि स्मार्टविग को वैसे लोग भी पहन सकते हैं जिनके बाल मौजूद हों और ये संचार के दूसरे उपकरणों से भी संपर्क साध सकता है.
सर्मार्टवॉच
अर्ज़ी में मुहैया करवाई गई जानकारी के मुताबिक़ स्मार्टविग सड़क पर चलने के काम में मदद कर सकता है और ब्लड प्रेशर से संबंधित जानकारियां भी जुटा सकता है.

गूगल और सैमसंग भी

हाल के दिनों में गूगल और सैमंसग ने भी वैसे प्रोडक्ट बाज़ार में उतारे हैं जिन्हें ‘वियेरेबिल टेक्नोलॉजी’ के नाम से जाना जाता है यानी जिन्हें पहना जा सकता है और वो रोज़मर्रा और दूसरे कई तरह के कामों में उपभोक्ता की मदद कर सकते हैं.
जापानी कंपनी सोनी ने कहा कि ये विग घोड़ों, आदमी, याक, भैंस के बालों, ऊन, चिड़ियों के परों या दूसरी तरह कृत्रिम सामग्रियों से तैयार किए जा सकते हैं.
गूगल ग्लास
इसमें जो संचार उपकरण या सेंसर लगे होते हैं वो बालों से छुप जाते हैं.
सोनी का कहना है कि ये दृष्टिहीन लोगों के बहुत काम आ सकता है जैसे सड़क पार करने का काम.
कंपनी के एक प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा कि सोनी ने ये फ़ैसला नहीं किया है कि इसे बाज़ार में बिक्री के लिए कब उतारा जाएगा.

फ़्रिज बताएगा क्या पकाओ और 3डी प्रिंटर छापेगा पकवान


3डी फूड प्रिंटर से बना सकते हैं डिजायनर डिश.
भविष्य का किचन आपके मित्र जैसा होगा. वह खाना पकाने, ख़रीदारी करने और अधिकतम साफ़-सफ़ाई के साथ ज़रूरी ख़ुराक लेने में मदद करेगा.
इस तरह की कई अन्य तकनीक हमारे पास पहले ही हैं.
मसलन, वाई-फ़ाई वाले टैबलेट जैसी स्क्रीन से लैस स्मार्ट फ़्रिज में बारकोड स्कैनिंग की सुविधा आपको रखे हुए खाने से लेकर उसके एक्सपायरी डेट तक के बारे में जानकारी देता है.
यहां तक कि ये उपलब्ध खाद्य पदार्थों के आधार पर रेसिपी भी बताते हैं और इसकी जानकारी आपके स्मार्टफ़ोन पर भेज देते हैं.
किचन के ज्यादातर उपकरण अब पूरी तरह डिजिटल में रूपांतरित हो चुके हैं. सब्ज़ी काटने के बोर्ड से लेकर बहुपयोगी ओवन तक.
और जिस तेज़ी से इंटरनेट का प्रसार हो रहा है वह दिन दूर नहीं जब ये सारे उपकरण एक दूसरे से वायरलेस के रूप में जुड़ जाएंगे.

चॉप सिंक

चॉप सिंक सुझाता है रेसिपी.
सियोभान एंड्र्यूज़ ने एक ऐसा टच स्क्रीन चॉपिंग ब्लॉक बनाया है जो टुकड़ों के आकार के आधार पर आपको बता देता है कि खाने वालों की तय संख्या के लिए पर्याप्त है.
इसे 'गेटइटडाउनऑनपेपर' प्रतियोगिता में पुरस्कार भी मिल चुका है. इसका विकास शार्प लेबोरेटरीज़ ऑफ़ यूरोप एंड ह्यूमन इनवेंट द्वारा प्रायोजित था.
टफेंड ग्लास से बना यह चॉप सिंक आपकी ऑनलाइन ख़रीदारी लिस्ट में से रेसिपी सुझा सकता है और सुपर मार्केट को ऑर्डर भी भेज सकता है.
2013 के इलेक्ट्रोलक्स डिज़ाइन लैब प्रतियोगिता में न्यूट्रिमा फ़ूड एनॉलिसिस मैट का प्रोटोटाइप अंतिम विजेताओं में शामिल रहा.
इसे फ़िनलैंड की जेन पालोवूरी ने बनाया है. यह मैट खाद्य पदार्थ का भार, इसमें मौजूद विषैले प्रदूषण के साथ ही इसके पोषण तत्व के बारे में भी बताता है.
इसे उर्ध्वार्धर या क्षैतिज किसी भी तरह से रखा जा सकता है.
ये किचन गैजेट भविष्य में स्मार्ट फ़्रिज जैसे उपकरणों से सीधे सूचनाएं साझा करने लगेंगे.
खाने की गति और रुझान को ग्राफिक डिस्प्ले के रूप में दर्ज करता है यह हैपी फॉर्क.
फ़ैब्रिक बाउटेंस 'हापी फॉर्क' मॉनिटर लेकर आया है जो यह बताता है कि कोई कितनी तेज़ी से खाता है, ताकि ख़ुराक नियंत्रित करने में सहूलियत हो.
मोटापा कम करने में यह गैजेट काफ़ी मददगार साबित हो सकता है.
इस उपकरण से खाने के रुझान का आंकड़ा कम्प्यूटर में फ़ीड हो सकता है और इसे ग्राफ़िक के रूप में देखा जा सकता है.

इंडक्शन कुक टॉप

इलेक्ट्रोलक्स के वाइस प्रेसीडेंट हेनरिक ओटो ने बीबीसी को बताया कि, ''अभी भी बहुत सारी तकनीक मौजूद है जो उपभोक्ताओं की दिनचर्या में शामिल नहीं है, जैसे कि इंडक्शन कुकर.''
यह बिजली के इस्तेलाम से एक ऐसा चुंबकीय क्षेत्र पैदा करता है जो फेरोमैग्नेटिक पैन को गर्म कर देता है. यह परम्परागत गैस या हीटर क्वायल से ज्यादा किफ़ायती है.
किफायती होने के कारण इंडक्शन कुक टॉप का बढ़ रहा है प्रचलन.
ओटो के अनुसार, इंडक्शन कुकर बेहद सटीक तापमान पर खाना पकाता है.
ऐसे बर्तन भी अब आ गए हैं जिसका संवेदनशील हिस्सा ही गर्म होगा.
लेकिन ओटो यह महसूस करते हैं कि इसका इस्तेमाल का चलन अभी व्यापक नहीं हो पाया है.
वह सवालिया लहजे में कहते हैं, क्या हो यदि आपका पूरा किचन इंडक्शन तकनीकी से लैस हो या क्या हो यदि यह अन्य उपकरणों को भी चार्ज करने का काम करे?
''उदाहरण के लिए आपके लीविंग रूम में कॉफ़ी टेबल इंडक्शन कुक टॉप हो जो कॉफ़ी बनाने के साथ रातभर आपका लैपटाप चार्ज कर सकता है.''

3डी फ़ूड प्रिंटर

बर्सिलोना स्टार्टअप नेचुरल मशीन एक ऐसा 3डी प्रिंटर का प्रोटोटाइप है जो मनचाहा डिश बना सकता है. इसे फूडिनी ने विकसित किया है.
इससे चॉकलेट, कुकीज़ आदि इंस्टेंट खाद्य पदार्थ बनाया जा सकता है.
तकनीकी रूप से यह प्रिंटिंग नहीं है. एक पाइप के मार्फ़त इससे कई तरह की खाने की चीज़ें बनाई जा सकती हैं.
इसमें छह अलग-अलग तत्वों के लिए हौज़ पाइप लगे होते हैं. इससे डिज़ाइन किए गए डिश का निर्माण होता है.
अंतरिक्षयात्रियों को भोजन मुहैया कराने के लिए नासा भी इस तरह के प्रोटोटाइप का परीक्षण कर रहा है.

अब 'इलेक्ट्रॉनिक रक्त' से चलेगा कंप्यूटर

अब 'इलेक्ट्रॉनिक रक्त' से चलेगा कंप्यूटर


आईटी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी आईबीएम ने एक ऐसे नए कंप्यूटर का नमूना पेश किया है जो मनुष्य के मस्तिष्क की संरचना से प्रेरित है. इस कंप्यूटर की ख़ास बात यह है कि यह 'इलेक्ट्रॉनिक रक्त' से संचालित होगा.
क्लिक करेंआईबीएम का कहना है कि कंपनी ने प्रकृति से प्रेरणा लेते हुए इंसान के दिमाग़ जैसा ही क्लिक करेंकंप्यूटर बनाने की कोशिश की है जो तरल पदार्थ से ऊर्जा पाकर संचालित होता है.

इस कंप्यूटर के नए रिडॉक्स फ्लो तंत्र (यह एक रासायनिक प्रतिक्रिया है जिसमें एक बार ऑक्सीकरण हुआ तो इसकी उल्टी प्रतिक्रिया में इसमें कमी आती है) के जरिए कंप्यूटर में इलेक्ट्रोलाइट 'रक्त' का प्रवाह होता है और जिससे इस कंप्यूटर को बिजली मिलती है.मनुष्य के क्लिक करेंदिमाग़ में बिल्कुल छोटी-सी जगह में असाधारण गणना की ताक़त होती है और इसमें केवल 20 वॉट की ऊर्जा का इस्तेमाल होता है. आईबीएम की कोशिश है कि उसके नए कंप्यूटर में भी ऐसी ही क्षमता हो.

इलेक्ट्रॉनिक रक्त

यह इलेक्ट्रोलाइट 'रक्त' दरअसल ऐसा द्रव है जिससे बिजली का प्रवाह होता है.
तकनीकी क्षेत्र की इस दिग्गज कंपनी की ज्यूरिख प्रयोगशाला में इस हफ़्ते डॉ. पैट्रिक रुश और डॉ. ब्रूनो मिशेल ने इस क्लिक करेंकंप्यूटर के एक छोटे मॉडल को पेश किया.
उनके मुताबिक़ एक पेटाफ्लॉप क्लिक करेंकंप्यूटर जो आज एक फुटबॉल के मैदान को भर सकता है वह वर्ष 2060 तक किसी डेस्कटॉप में फिट होने लायक बन जाएगा.
मिशेल कहते हैं, "हम एक शुगरक्यूब के अंदर एक सुपर कंप्यूटर फिट करना चाहते हैं. ऐसा करने के लिए हमें इलेक्ट्रॉनिक्स में एक बदलाव की जरूरत है, साथ ही हमें अपने दिमाग से प्रेरित होने की भी जरूरत है."
डॉ. ब्रूनो मिशेल
डॉ. ब्रूनो मिशेल एक सर्वर के साथ
मानव मस्तिष्क किसी कंप्यूटर के मुकाबले 10,000 गुना ज़्यादा जटिल और सक्षम है.
उनका कहना है, "यह संभव भी है क्योंकि दिमाग एक ही समय में गर्मी और ऊर्जा के प्रवाह के लिए अत्यंत सूक्ष्म नलिकाओं के जाल और रक्त वाहिकाओं का उपयोग करता है."
आईबीएम का इंसान की दिमागी क्षमता वाला कंप्यूटर अब तक 'वॉटसन' ही रहा है जिसने अमेरिका के मशहूर टीवी क्विज शो 'जियोपार्डी' के दो चैंपियनों को हरा दिया था.
इस जीत को ज्ञान आधारित कंप्यूटिंग के क्षेत्र में एक मील के पत्थर के रूप में देखा गया था जिसमें मशीन ने मनुष्य को पीछे छोड़ दिया था.
हालांकि मिशेल कहते हैं कि यह प्रतियोगिता अनुचित थी. केन जेनिंग्स और ब्रैड रटर का दिमाग केवल 20 वॉट ऊर्जा पर ही चल रहा था जबकि वॉटसन के लिए 85,000 वॉट की जरूरत थी.
आईबीएम का मानना है कि अगली पीढ़ी के कंप्यूटर चिप के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत ऊर्जा दक्षता ही होगा.
मूर की विधि के जरिए आधी सदी में मौजूदा 2D सिलिकॉन चिप की ताकत दोगुनी हो गई है और वे एक ऐसी भौतिक सीमा के पास पहुंच रहे हैं जहां वे ज़्यादा गर्म हुए बिना सिकुड़ नहीं सकते.

बायोनिक नजरिया

तरल शीतक
इस तरह के विशेष कंप्यूटर में तरल शीतकों का इस्तेमाल किया जाता है
मिशेल का कहना है, "कंप्यूटर उद्योग 30 अरब डॉलर ऊर्जा का इस्तेमाल करता है जिसे बाहर निकाल दिया जाता है. हम 30 अरब डॉलर तक की गर्म हवा तैयार कर रहे हैं . एक कंप्यूटर का 99 फीसदी हिस्सा केवल शीतक और ऊर्जा देने में लगा होता है और केवल 1 फीसदी हिस्से से ही जानकारी वाली प्रक्रिया संचालित होती है. इसके बाद हम सोचते हैं कि हमने एक अच्छे कंप्यूटर का निर्माण किया है? वहीं मनुष्य का मस्तिष्क कार्यात्मक प्रदर्शन के लिए इसकी 40 फीसदी मात्रा का इस्तेमाल करता है जबकि ऊर्जा और शीतक के लिए केवल 10 फीसदी मात्रा का इस्तेमाल किया जाता है."
मिशेल का मानना है कि जैविक सिद्धांतों का इस्तेमाल कर इलेक्ट्रॉनिक तंत्र को डिजाइन कर तैयार हुआ नया बायोनिक कंप्यूटर प्रकृति के ही एक नियम एलोमेट्रिक स्केलिंग से प्रेरित है जिसमें एक जानवर की पाचन शक्ति उसके अपने शरीर के आकार के साथ बढ़ जाती है.
मिसाल के तौर पर 10 लाख चूहों से भी ज्यादा एक हाथी का वजन होता है. लेकिन यह 30 गुना कम ऊर्जा की खपत है और यहा ऐसा काम करने में सक्षम है जो 10 लाख चूहे भी मिलकर पूरा नहीं कर सकते हैं.
मिशेल का कहना है कि यही सिद्धांत कंप्यूटिंग के लिए भी सच है जिसमें तीन खास मूल डिजाइन हैं.
पहला 3डी आर्किटेक्चर है जिसमें चिप ऊंचे हैं और मेमोरी स्टोर की इकाई प्रोसेसर से ही जुड़ी हुई है.

द्रव का कमाल

कंप्यूटर मस्तिष्क की तरह काम करे इसके लिए आईबीएम को तीसरे विकासवादी क़दम को हासिल करना होगा मसलन तरल ऊर्जा और शीतक वाली प्रक्रिया एक साथ संचालित हो सके.
रिडॉक्स प्रवाह तंत्र
रिडॉक्स प्रवाह तंत्र में अलग-अलग रंगों के तरल पदार्थों की ऑक्सीकरण की प्रक्रिया भी अलग होती है
यह कुछ ऐसा ही है कि रक्त एक ओर चीनी देता है और दूसरी ओर गर्मी लेता है. ठीक इसी तरह आईबीएम भी एक ऐसे तरल पदार्थ की खोज में जुटा है जो एक साथ कई काम निबटा सके.
प्रयोगशाला के परीक्षण तंत्र में वैनेडियम का प्रदर्शन सबसे अच्छा है जो 'रिडॉक्स फ्लो यूनिट' की किस्म की तरह ही है और यह एक साधारण बैटरी की तरह का होता है.
सबसे पहले इस तरल पदार्थ इलेक्ट्रोलाइट को चार्ज किया जाता है फिर इसे कंप्यूटर में डाला जाता है जहां यह अपनी ऊर्जा चिप में प्रवाहित कर देता है.
आईबीएम पहली ऐसी कंपनी है जो अपने चिप को इस इलेक्ट्रॉनिक रक्त के लिए दांव पर लगा रही है और इसे भविष्य के कंप्यूटर के खुराक के तौर पर देख रही है ताकि आने वाले दशकों में यह जेटास्केल कंप्यूटिंग के लक्ष्य को भी हासिल कर ले.
मिशेल का कहना है कि जेटास्केल कंप्यूटर के लिए दुनिया में उत्पादित बिजली के मुकाबले ज्यादा बिजली की जरूरत पड़ेगी.

कुछ किलो बोटॉक्स दुनिया के हर इंसान को मार सकता है

कुछ किलो बोटॉक्स दुनिया के हर इंसान को मार सकता है....


ज़हर
आज की तारीख़ में हमारी कई तरह की तकलीफ़ों, दर्दों से छुटकारा दिलाने के लिए कई तरह की दवाइयां उपलब्ध हैं- जो ज़िंदगी को आसान बनाती हैं.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि इनमें से कई दवाइयां बेहद ख़तरनाक ज़हरों से बनाई गई हैं.

बोटॉक्स- अपने चेहरे पर जिसके इंजेक्शन लगाने के लिए बहुत से लोग भारी मात्रा में पैसा ख़र्च करते हैं वो दरअसल बॉटुलिनम टॉक्सिन है.माइकल मोज़ली बता रहे हैं इन ख़तरनाक ज़हरों और उनसे बनी दवाओं के बारे में.
यह आज तक मिला सबसे ज़हरीला पदार्थ है. इसके कुछ चम्मच ब्रिटेन में मौजूद हर व्यक्ति को मारने के लिए काफ़ी हैं. सिर्फ़ कुछ किलो से धरती पर इंसान की समूची आबादी को खत्म कर सकता है.

कई तकलीफ़ों का इलाज

बॉटुलिनम टॉक्सिन इतना ख़तरनाक है कि इसे अब भी सैन्य नियंत्रण में ही बनाया जाता है. 100 ट्रिलियन पौंड (9938 ट्रिलियन रुपये) प्रति किलो के साथ ये आज तक बना सबसे महंगा उत्पाद भी है. लेकिन फिर भी बोटॉक्स की मांग कम नहीं है.
ज़हर के एलडी50 पैमाने, जिसमें पदार्थ की वो मात्रा देखी जाती है जिससे किसी की मौत हो सकती है, बोटोक्स 0.000001 मिलीग्राम/किलोग्राम. इसका मतलब ये हुआ कि 70 किलो के आदमी को मारने के लिए आपको सिर्फ़ 0.00007 की ज़रूरत पड़ेगी.
इसे यूं भी कहा जा सकता है कि 70 किलो के आदमी को मारने के लिए हवा की एक क्यूबिक मिलीमीटर से भी कम की ज़रूरत पड़ेगी.
इसकी ख्याति मुख्यतः चेहरे की झुर्रियां हटाने की वजह से है. ये झुर्रियां पैदा करने वाली धमनियों को मार देता है जिससे ये रुक जाती हैं. इसके लिए भी एक बहुत छोटी एक ग्राम की करोड़वीं मात्रा को सेलाइन में घोलकर इस्तेमाल किया जाता है.
बॉटुलिनम टॉक्सिन
विज्ञान के नाम पर मैंने भी कई साल पहले बोटोक्स का इस्तेमाल किया था. इसने झुर्रियां तो मिटा दीं लेकिन इसके साथ ही मेरे चेहरे पर भाव भी अजीब आने लगे थे. नई धमनियां आने के बाद ही ये ठीक हुए.
बॉटुलिनम टॉक्सिन का इस्तेमाल कई तरह की स्वास्थ्य दिक्कतों को दूर करने के लिए किया जाता है. इनमें आंखों का भेंगापन, माइग्रेन, अत्यधिक पसीना, और मूत्राशय की तकलीफ़ भी शामिल है.
दरअसल यह 20 विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों को दूर करने में काम आता है और इसके अन्य उपयोगों की तलाश अब भी जारी है.

मैरी एन कॉटन

ऐसा ही एक दूसरा एक बिलियन डॉलर (61 अरब रुपये से ज़्यादा) का उच्चरक्तदाब निरोधक दवा है कैप्टोप्रिल.
इसे सांप के ज़हर पर किए गए अध्ययनों के बाद विकसित किया गया है. एक्सेनेटाइड, जिसे बाएट्टा कहा जाता है टाइप-2 डाइबिटीज़ का प्रभावी इलाज है.
इसे दक्षिण-पश्चिमी अमरीका और मैक्सिको में रहने वाले विशाल ज़हरीली छिपकली, जिला मॉनस्टर, की लार से तैयार किया जाता है.
लेकिन आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान पर ज़हरों का असर सिर्फ़ इलाज प्रदान करने के अधिक है. एक ज़हर ने तो आधुनिक दवा उद्योग को नई शक्ल दी.
विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में बीमा एक उभरता हुआ उद्योग था. लेकिन आसानी से हासिल होने वाले पैसे की वजह से बहुत सी हत्याएं हो रही थीं, जिनमें से ज़्यादातर ज़हर के कारण थीं.
बोटोक्स
सबसे मशहूर मामला एक महिला मैरी एन कॉटन का था जिस पर 1973 में कई हत्याओं के लिए मुकदमा चलाया गया था.
उसने चार बार शादी की थी और उसके तीन पति, जिनका बड़ा भारी बीमा था, मर गए थे.
एक बच गया, शायद इसलिए क्योंकि उसने बीमा करवाने से इनकार कर दिया था. मैरी ने उसे छोड़ दिया.
उसके सभी 10 बच्चे पेट संबंधी बीमारी की वजह से मर गए. सबकी मौत बेहद दुखद थी लेकिन मैरी के सौभाग्य से सभी का बीमा हो रखा था.
उसकी मां, उसकी भाभी, उसका प्रेमी सबकी मौत हो गई. और हर मामले में उसे फ़ायदा हुआ.

आधुनिक दवा उद्योग का उद्भव

साल 1872 तक मैरी के 16 नज़दीकी दोस्त या पारिवारिक सदस्य मारे गए थे. लेकिन एक बच गया था- सात साल का सौतेला बेटा, चार्ल्स.
उसने एक स्थानीय दरिद्रालय को उसे देने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. चार्ल्स भी जल्द ही मर गया.
आर्सेनिक
दरिद्रालय के प्रबंधक को थोड़ा शक हो गया और उसने पुलिस को सूचना दे दी. उन्होंने जल्द ही तय किया कि मैरी ने ज़रूर बच्चे को ज़हर दिया होगा और उन्हें लगा कि उसने- आर्सेनिक- देकर बच्चे को मारा है.
आर्सेनिक एक खनिज है और एक ज़हर के रूप में यह आद्वितीय है. यह स्वादरहित होता है, गर्म पानी में घुल जाता है और एक आउंस (28.34 ग्राम) के सौवें हिस्से से भी कम से जान ले लेता है.
19वीं शताब्दी में इसे चूहों के ज़हर के रूप में बेचा जाता था. यह सस्ता था और आसानी से उपलब्ध था.
उस वक्त फोरेंसिक विज्ञान भी अपनी शैशवावस्था में था फिर भी आर्सेनिक के लिए अच्छा टेस्ट मौजूद था. वह इसलिए कि तब आर्सेनिक के ज़हर के इस्तेमाल की बहुत ज़्यादा मामले आ रहे थे.
लड़के के पेट से लिए गए नमूनों की जांच की गई और पता चला कि उसकी मृत्यु आर्सेनिक की घातक मात्रा से हुई है.
मैरी को उसकी हत्या का दोषी पाया गया और उसे डरहम जेल में फांसी दे दी गई.
हालांकि उसकी मां, तीन पतियों, दो दोस्तों और दस बच्चों की मौत के मामले में उस पर कभी मुकदमा नहीं चलाया जा सका.
इसके बाद ही ब्रिटेन में आर्सनिक कानून बना और फिर 1868 में फ़ार्मेसी कानून लागू हुआ. इसमें कहा गया कि सिर्फ़ योग्यता प्राप्त दवा विक्रेता ही ज़हर बेच सकते हैं.
तो इस तरह आधुनिक विधि सम्मत दवा उद्योग ऐसे ज़हरो के चलते ही अस्तित्व में आया.
और कभी हत्यारों का दोस्त रहा आर्सेनिक अब नई भूमिका में है, कैंसर-विरोधी पदार्थ के रूप में.
(source-bbc news)

सोने का भंडार खोजने का 'आसान तरीका'

सोने का भंडार खोजने का 'आसान तरीका'

 
यूकेलिप्टस की पत्तियों में मौजूद सोने के कणों से जमीन में स्वर्ण भंडार होने का अनुमान लगाया जा सकता है.
उन्नाव का डौंडिया खेड़ा गाँव आजकल 'सोने के रहस्यमय भंडार' के लिए देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है.
डौंडिया खेड़ा की मिट्टी में सोना दबा है या नहीं, ये तो भविष्य में ही तय होगा लेकिन वैज्ञानिकों ने साबित कर दिया है कि कुछ पेड़ों की पत्तियों में सोना पाया जाता है.

ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं का कहना है कि यूकेलिप्टस की पत्तियों में मौजूद कणों से पता चलता है कि कई मीटर नीचे सोने का भंडार जमा है.वैज्ञानिकों का कहना है कि पत्तियों पर सोने के कणों की मौजूदगी का मतलब है कि पेड़ के नीचे धरती में सोने का भंडार हो सकता है.
उनका मानना है कि मुश्किल स्थानों में क्लिक करेंसोने की तलाश के लिए ताज़ा शोध के नतीजों से काफ़ी फ़ायदा होगा.
इस शोध को जनरल नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित किया गया है.

आसान होगी खोज

उन्नाव का डौंडिया खेड़ा गांव आजकल सोने की तलाश के कारण सुर्खियों में बना हुआ है.
ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध संगठन (सीएसआईआरओ) के भू-रासायनिक डॉक्टर मेल लिंटर्न ने बताया, "हमने ऑस्ट्रेलिया में और दुनिया में दूसरे कई स्थानों में भंडार पाया है."
उन्होंने कहा कि, "अब हम अधिक मुश्किल भंडारों की तलाश कर रहे हैं जो नदियों की तलछट और रेत के टीलों में कई मीटर नीचे दबे हुए हैं."
लिंटर्न ने बताया कि ऐसा करने के लिए इन पेड़ों के ज़रिए एक तरीका मिल रहा है.
इन यूकेलिप्टस पेड़ों के आस-पास की मिट्टी में क्लिक करेंसोने के कण पाए गए हैं लेकिन शोधकर्ताओं ने साबित किया है कि पेड़ इन तत्वों को ग्रहण कर रहे हैं.
ऑस्ट्रेलियाई सिक्रोटॉन का इस्तेमाल करते हुए एक बड़ी मशीन के जरिए यह जांच की गई. मशीन ने इसके लिए एक्स-रे का इस्तेमाल किया.
जांच में पाया गया कि कुछ पेड़ों की पत्तियों, टहनियों और छालों में सोने की मौजूदगी थी.
हालांकि इस दुर्लभ धातु की मात्रा बेहद कम थी.

लागत में होगी कमी

सोना दुनिया की सबसे बहुमूल्य धातु और प्राचीन मुद्रा है.
डॉक्टर लिंटर्न ने बताया, "हमने एक गणना की और पाया कि एक अंगूठी बनाने के लिए ज़रूरी सोना पाने के लिए हमें किसी स्वर्ण भंडार के ऊपर 500 पेड़ उगाने होंगे."
हालांकि कणों की मौजूदगी से 30 मीटर से अधिक गहराई पर दफन एक बड़े भंडार के बारे में पता चलता है.
डॉक्टर लिंटर्न का कहना है, "हमारा मानना है कि पेड़ हाइड्रोलिक पंप की तरह बर्ताव कर रहे हैं. वो जीवन के लिए जड़ों से पानी ले रहे हैं और ऐसा करने के दौरान वो अपने नाड़ी तंत्र के जरिए कम मात्रा में घुलनशील सोने के कण ग्रहण करते हैं, जो पत्तियों तक पहुंच जाता है."
फिलहाल यह धातु पृथ्वी की सतह से ऊपर निकली चट्टानों में पाई जाती है, जहां अयस्क सतह पर दिखाई देते हैं या फिर सघन खोज के तहत ड्रिलिंग के जरिए इसे खोजा जाता है.
लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि क्लिक करेंपेड़-पौधों के विश्लेषण से सोने के अज्ञात भंडारों को खोजने का बेहतर तरीका पाया जा सकता है.
डॉक्टर लिंटर्न के मुताबिक़ इस तरीके से स्वर्ण भंडारों की खोज में आने वाली लागत में कमी आएगी और साथ ही पर्यावरण को क्षति भी कम होगी.
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक का इस्तेमाल दुनिया के दूसरे हिस्सों में लोहा, तांबा और लेड जैसी धातुओं की खोज के लिए किया जा सकता है.

बड़े पंजों वाले जीवाश्म में था मकड़ी की तरह दिमाग

बड़े पंजों वाले जीवाश्म में था मकड़ी की तरह दिमाग

 
वैज्ञानिकों ने एक बेहद पुराने जीवाश्म से अब तक के सबसे संरक्षित तंत्रिका तंत्र की खोज़ की है.
ईसा पूर्व करीब 52 करोड़ साल पहले के इस बड़े पंजों वाली मकड़ी के जीवाश्म से स्पष्ट तौर पर मस्तिष्क और तंत्रिका कॉर्ड के होने के साक्ष्य मिले हैं, जो उस जीव के धड़ में सक्रिय थे.

अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने इस अध्ययन को नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया है. यह विलुप्त हो चुके ऐसे जीवों के जीवाश्म हैं जो आपस में जुड़े हुए थे.इस नमूने से अब यह स्पष्ट होता है कि मकड़ी और बिच्छू के पूर्वज एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, लेकिन क़रीब 50 करोड़ साल पहले ये अलग-अलग हो गए.
लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के ग्रेग एजकॉम्बे का कहना है कि जीवों के मुख्य प्रजातियों में ऐसे ही तंत्रिका तंत्र के होने की संभावना है जिससे जीवाश्म वैज्ञानिकों को यह पता लगाने में सहायता मिल सकती है कि ये कैसे जुड़े हैं.
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''तंत्रिका तंत्र हमारे पास मौजूद एक सबसे विश्वसनीय टूल किट है. हम यह पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या यह जीवों के जीवाश्म से नेचुरल टिशू को संरक्षित करने का सबूत है.''
उन्होंने कहा, ''हम जिन जीवाश्मों के साथ काम कर रहे हैं वे कार्बन काल के दौरान के बेहतरीन शारीरिक संरक्षण हैं. इसने हमें दिमाग, यांत्रिकी कॉर्ड और नेचुरल टिशू के बारे में सूचनाएं दी हैं, जो आंखों में जाती हैं.''
इस जीवाश्म को हाल ही में दक्षिणी चीन से बरामद किया गया और यह 'अलालकोमेनेयस' का हिस्सा है. 'अलालकोमेनेयस' आपस में जुड़े हुए जीवों की एक प्रजाति होती है. इस समूह के जीवों में दर्जनों उपअंग होते हैं जिनके सहारे वे तैरते या रेंगते हैं.
इसकी उत्पत्ति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए इसका सीटी स्कैन कर दूसरे ऐसे जीवों के साथ तुलना की गई. इसके बाद टीम ने इस जीव की बनावट को समझने के लिए 3डी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया.
डॉ. एजकॉम्बे ने कहा कि ऐसे जीवों के बारे में जानने के उत्सुक उनके जैसे लोग यह समझना चाहते हैं कि ये आज के इस प्रजाति के जीवों से कितना अलग थे.
उन्होंने कहा, ''तंत्रिका तंत्र तक पहुंचने के बाद हमने आज के जीवों के इस्तेमाल होने वाली सूचनाओं के आधार पर ही प्राचीन जीवाश्मों में रिश्तों का अध्ययन किया.''
इस अध्ययन की सह लेखक और नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के ही जियाओया मा ने कहा, ''ईसा पूर्व 52 करोड़ साल पहले के जीवाश्म में एक पूर्ण केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के बारे में सफलतापूर्वक अध्ययन के लिए नई तकनीक का इस्तेमाल करना काफी शानदार रहा.''
उन्होंने कहा कि इस जीवाश्म के हाई रिज्योलुशन वाली बनाई गई तस्वीर के आधार पर टीम ने इस जीव के सिर वाले क्षेत्र में तंत्रिकीय बनावट देखी. वैज्ञानिकों ने इस जीव में मस्तिष्क से जुड़े कई और हिस्से भी दिखे.

क्या आप मंगल को अच्छे से जानते हैं?


मंगल, ग्रह, चंद्रमा
मंगल के बारे में आपने अक्सर पढ़ा होगा. मंगल पर जीवन की मौजूदगी से भी आगे बहुत सी बातें हैं जो जानना दिलचस्प हो सकता है.
पढ़िए ऐसी ही कुछ दिलचस्प बातें जो शायद आप न जानते हों.

2. मंगल के दो चंद्रमा हैं. इनके नाम फ़ोबोस और डेमोस हैं. फ़ोबोस डेमोस से थोड़ा बड़ा है. फ़ोबोस मंगल की सतह से सिर्फ़ 6 हज़ार किलोमीटर ऊपर परिक्रमा करता है.1. मंगल को लाल ग्रह कहते हैं क्योंकि मंगल की मिट्टी के लौह खनिज में ज़ंग लगने की वजह से वातावरण और मिट्टी लाल दिखती है.
3. फ़ोबोस धीरे-धीरे मंगल की ओर झुक रहा है, हर सौ साल में ये मंगल की ओर 1.8 मीटर झुक जाता है. अनुमान है कि 5 करोड़ साल में फ़ोबोस या तो मंगल से टकरा जाएगा या फिर टूट जाएगा और मंगल के चारों ओर एक रिंग बना लेगा.
फ़ोबोस पर गुरुत्वाकर्षण धरती के गुरुत्वाकर्षण का एक हज़ारवां हिस्सा है. इसे कुछ यूं समझा जाए कि धरती पर अगर किसी व्यक्ति का वज़न 68 किलोग्राम है तो उसका वज़न फ़ोबोस पर सिर्फ़ 68 ग्राम होगा.
मंगल ग्रह
माना जाता है कि मंगल पर पानी बर्फ़ के रूप में ध्रुवों पर मौजूद है.
4. अगर ये माना जाए कि सूरज एक दरवाज़े जितना बड़ा है तो धरती एक सिक्के की तरह होगी और मंगल एक एस्पिरीन टैबलेट की तरह होगा.
5. मंगल का एक दिन 24 घंटे से थोड़े ज़्यादा का होता है. मंगल सूरज की एक परिक्रमा धरती के 687 दिन में करता है. यानी मंगल का एक साल धरती के 23 महीने के बराबर होगा.
6. मंगल और धरती करीब दो साल में एक दूसरे के सबसे करीब होते हैं, दोनों के बीच की दूरी तब सिर्फ़ 5 करोड़ 60 लाख किलोमीटर होती है.
7. मंगल पर पानी बर्फ़ के रूप में ध्रुवों पर मिलता है और ये कल्पना की जाती है कि नमकीन पानी भी है जो मंगल के दूसरे इलाकों में बहता है.
8. वैज्ञानिक मानते हैं कि मंगल पर करीब साढ़े तीन अरब साल पहले भयंकर बाढ़ आई थी. हालांकि ये कोई नहीं जानता कि ये पानी कहां से आया था, कितने समय तक रहा और कहां चला गया.
9. मंगल पर तापमान बहुत ज़्यादा भी हो सकता है और बहुत कम भी.

क्या आप जानते हैं?

  • मंगल के दो चंद्रमा हैं
  • मंगल का एक दिन 24 घंटे से थोड़ा ज़्यादा होता है
  • मंगल और धरती करीब दो साल में एक दूसरे के सबसे ज़्यादा करीब होते हैं
  • मंगल पर तापमान बहुत ज़्यादा भी हो सकता है और बहुत कम भी.
  • मंगल का गुरुत्वाकर्षण धरती के गुरुत्वाकर्षण का एक तिहाई है
  • मंगल पर धूल भरे तूफ़ान उठते रहते हैं.
10. मंगल एक रेगिस्तान की तरह है, इसलिए अगर कोई मंगल पर जाना चाहे तो उसे बहुत ज़्यादा पानी लेकर जाना होगा.
11. मंगल पर ज्वालामुखी बहुत बड़े हैं, बहुत पुराने हैं और समझा जाता है कि निष्क्रिय हैं. मंगल पर जो खाई है वो धरती की सबसे बड़ी खाई से भी बहुत बड़ी है.
12. मंगल का गुरुत्वाकर्षण धरती के गुरुत्वाकर्षण का एक तिहाई है. इसका मतलब ये है कि मंगल पर कोई चट्टान अगर गिरे तो वो धरती के मुकाबले बहुत धीमी रफ़्तार से गिरेगी.
किसी व्यक्ति का वज़न अगर धरती पर 100 पौंड हो तो कम गुरुत्वाकर्षण की वजह से मंगल पर उसका वज़न सिर्फ़ 37 पौंड होगा.
13. मंगल की सतह पर धूल भरे तूफ़ान उठते रहते हैं, कभी-कभी ये तूफ़ान पूरे मंगल को ढक लेते हैं.
14. मंगल पर वातावरण का दबाव धरती की तुलना में बेहद कम है इसलिए वहां जीवन बहुत मुश्किल है.
(source-internet)

एस्टरॉयड से धरती को बढ़ रहा है ख़तरा

एस्टरॉयड से धरती को बढ़ रहा है ख़तरा


चलयाबिंक्स
चलयाबिंक्स शहर पर हुए एस्टरॉयड के विस्फोट में 1600 लोग ज़ख्मी हुए थे.
वैज्ञानिकों का कहना है कि क्लिक करेंएस्टरॉयड या अंतरिक्ष से गिरने वाली चट्टानों के धरती से टकराने का ख़तरा उससे कहीं ज़्यादा है जितना कि पहले सोचा गया था.
विज्ञान पत्रिका नेचर में छपे अध्ययन के मुताबिक़ रूस के चलयाबिंस्क में इस साल गिरे एस्टरॉयड से बड़े और अधिक ख़तरनाक चट्टान धरती की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहे हैं.

इस चट्टान के चलयाबिंस्क शहर के साढ़े अट्ठारह मील ऊपर फटकर कई टुकड़े हो गए थे.चलयाबिंस्क में फ़रवरी में गिरी चट्टान के विस्फोट से उतनी ऊर्जा पैदा हुई थी जितनी एक परमाणु हथियार से हो सकती है.

बर्बादी

67,700 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से अंतरिक्ष से धरती की तरफ़ आई ये चट्टान 62 फीट की थी और इसके विस्फोट से हज़ारों खिड़कियां और दरवाज़े नष्ट हो गए थे.
चट्टान का काफ़ी बड़ा हिस्सा टकराने से पहले ही विस्फोट में गलकर गैस में तब्दील हो गया था.
बाद में इसका सबसे बड़ा हिस्सा एक झील से मिला था जिसका वज़न 650 किलो था.
"
इस विस्फोट में 1600 लोग ज़ख्मी हुए थे जबकि इसकी तेज़ रोशनी की वजह से 70 लोगों के आँखों की रोशनी कुछ समय के लिए चली गई थी.
वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में इसी तरह के और अधिक क्लिक करेंएस्टरॉयड्सके धरती से टकराने की संभावना बढ़ गई है.
उनका कहना है कि इस तरह की ज़्यादातर घटनाओं की ख़बर सामने नहीं आ पाती क्योंकि ये विस्फोट या तो समुद्र या बहुत दूर क्लिक करेंदराज़ इलाक़ों में होते हैं.
पिछले बीस साल के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद शोधकर्ताओं ने पाया है कि इस दौरान 20 मीटर के आकार वाले 60 एस्टरॉयड धरती से टकराए हैं.

चेतावनी देने वाला सिस्टम

इनका अध्ययन अमरीका के सेंसर्स और उन इंफ्रासाउंड सेंसर्स की मदद से हुआ जो पृथ्वी के कई तरफ स्थापित किए गए हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए चेतावनी देने वाले सिस्टम की व्यवस्था की जानी चाहिए जो यह सुनिश्चित कर सके कि ये एस्टरॉयड कब और कहां गिरने वाले हैं.
एस्टरॉयड
धरती के पास से गुज़रने वाले एस्टरॉयड से संसाधन तलाश करने की बात भी की गई है.
शोध टीम के प्रमुख वैज्ञानिक प्रोफेसर पीटर ब्राउन ने कहा, "हमें उस तरह के सिस्टम को विकसित करना होगा जो लगातार आकाश पर नज़र बनाए रखे, इस तरह की चीज़ों पर नजर रखे इससे पहले की वो धरती से टकराएं, ये उस तरह का काम है, जो करने की ज़रूरत है."
उनका कहना था, "जहां तक चलयाबिंस्क का सवाल है तो चंद दिनों से लेकर कुछ हफ्तों पहले मिली चेतावनी बहुत कीमती हो सकती थी, अगर किसी और कारण से नहीं तो कम से कम लोगों को ये कह पाने के लिए कि वो खिड़कियों से बाहर न झांके या उस वक्त उसके क़रीब न जाएँ जब ये विस्फोट हुआ."

तुंगुसका

प्रोफेसर पीटर ब्राउन कनाडा के वेस्टर्न विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हैं.
चलयाबिंस्क के पहले धरती से सबसे बड़ा एस्टरॉयड 1908 में तुंगुसका में टकराया था. जब ये फटा था तो साइबेरिया के जंगल का दो हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पूरी तरह से बर्बाद हो गया था.
समाचार एजेंसी प्रेस एसोसिएशन कहना है कि वो अंतरिक्ष का उस तरह का चट्टान था जिसे 'कोन्ड्राइट' के नाम से जाना जाता है.
समाचार एजेंसी के मुताबिक़ इस तरह के चट्टान भविष्य में विनाश की बहुत बड़ी वजह हो सकते हैं.
(source-internet)